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हास्य् व्यंग फैशन का दौर

19 सितम्बर 2015

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एक दिन मै घर से गया बाजार कुछ काम से नहीं करने विहार। चकित हो गया देख के अपनी बहिनों का स्रंगार। श्रृंगार देख आचार देख और देख व्यवहार। वहाँ देखता हूँ। सैट हो रही आई ब्रो थी बोब्ड़ हो रहे बाल ओठों पर सज रही लिपस्टिक सूख रहे थे गाल । नेल पार दो इंच कर चुके कद था साढे चार उस पर फिट कुरता सलवार । आगे बढ़ता मैं सोच रहा था इस देश का भविष्य तभी नजर आये मुझको दो ग्रैजुएट मनुष्य। फैशन के इस दौर मे भूमिका उनने खूब निभाई फैशन के इस भूत ने उनसे उनकी मूंछ मुडवाई । टाँगे जैसे बांस हो रही उस पर टाइट जीन्स । मुंह में गोल्डमोहर और हाथो मे थी विल्स। पैरों में थे जूते जिनपर लिखी हुई वुडलैंड । मन मे सोचा मैंने होगया भारतीय संस्कृति का एन्ड देख के फैशन ट्रेंड।

विवेक राजोरिया की अन्य किताबें

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

विवेक जी, हास्य कविता के माध्यम से ठीक कहा आपने कि परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है लेकिन हमारी संस्कृति को कोई आँच ना आये, यह भी ध्यान रखना होगा ! सुन्दर हास्य रचना !

1 अक्टूबर 2015

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जिंदगी की सीख

19 सितम्बर 2015
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कभी धूप मे चलना पैरों का जलना छालों का पड़ना छाया मे चलना कुछ देर सुहाना लगना फिर सर्दी से ठिठुरना वसंत का आना फ़ूलो का खिलना हरियाना पतझड मे फिर से उजड़जाना क्या यही जिंदगी है?जो पूछा जिंदगी से क्यों देती हो इतने दर्दक्यों बिछाती हो राह मे काँटे क्यों बनाती हो दीवारेँ हर तरफ विघ्न ही विघ्न ऐसा संजाल

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प्रण

19 सितम्बर 2015
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क्यों रोक रहा है पथ मेरा बढ़ने दे मत अवरोध बढ़ा।ठानी है जिसने बढ़ने की फिर कौन उसे है रोक सका ।सब नतमस्तक होजाते हैं वो जाता है मदमस्त जहां।अपने मे खोया रहता है जग मे ना कुछ भी ढूंढ रहा।तू क्या सोचे है रोक सकेगा क्या उसका पथ तू बड़के ।नादान समझना मत उसको पाषाण चीर कड़ जायेगा ।तू होकर तम ये सोच रहा उदय प्

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हास्य् व्यंग फैशन का दौर

19 सितम्बर 2015
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एक दिन मै घर से गया बाजार कुछ काम से नहीं करने विहार।चकित हो गया देख के अपनी बहिनों का स्रंगार।श्रृंगार देख आचार देख और देख व्यवहार।वहाँ देखता हूँ।सैट हो रही आई ब्रो थी बोब्ड़ हो रहे बाल ओठों पर सज रही लिपस्टिक सूख रहे थे गाल ।नेल पार दो इंच कर चुके कद था साढे चार उस पर फिट कुरता सलवार ।आगे बढ़ता मैं

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भारत का इंसान

23 सितम्बर 2015
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कुछ लोगो की राजनीती ने हमको है ये बतलाया।बनते कैसे शेर से गीदड़ हमको है ये सिखलाया।एक गाल पर मारे कोई दूजा भी उसको देदो।जिस्म भला क्या चीज यहाँ प्राणों को भी उसको देदो ।कितना भीरु बनाया हमको अहिंसा परमोधर्म ने।भुला दिया कर्मन्यवाधिकारास्ते को उस धर्म ने।जहाँ खेलते थे बच्चे भी सिंह शावक के साथ में।वही

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