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कागज़ की नाव

14 सितम्बर 2024

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कागज की नाव 


लेखक : प्रिन्स सिंहल 


बरसात का मौसम यानी रिमझिम गिरता सावन और होने लगती है दिल में एक अजीब सी गुदगुदी। मिट्टी की सौंधी सौंधी सुगंध सांसो में महकने लगती है। और मन डूबने लगता है पुरानी यादों में।

यादों में भिगो देने वाला बरसात का मौसम किसी के लिए खुशहाली लाता है तो किसी के लिए मस्ती, और मस्ती भरा मन आसमान में घिरी काली घटाएं देखते ही मयूर बनकर नाचने लगता है, और खोने लगता है बचपन में। जिस बचपन में मेरे बाबा की यादें बसी है, और बसी है, बरसात के मौसम में पानी में बहती कागज की नाव।

अपने बाबा का लाडला मैं बचपन से ही रहा | जब वह मुझे स्कूल छोड़ने जाते थे , उनका कोई शिक्षाप्रद कहानी सुनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था |  फिर छुट्टी में स्कूल के बाहर पहले से ही इंतजार में खड़े बाबा मन में समा जाते थे |  शाम को घुमाने ले  जाना, गर्मियों में आइसक्रीम दिलाना, कितना सुखद बचपन था मेरा बाबा के साथ |  पिताजी तो अपने व्यवसाय की वजह से कहां समय दे पाते थे मुझे, लेकिन बाबा मेरी हर फरमाइश को पूरा  करने की हिम्मत रखते | हम तीन भाई -बहनों में शायद मैं ही सबसे ज्यादा चहेता रहा उनका | मां तो अक्सर ही घर के कामों में उलझी रहती, लेकिन चाहती वह भी मुझे ही सबसे ज्यादा | कभी कोई फरमाइश पूरी ना कर पाते बाबा तो मां अपने जुड़े पैसों में से निकाल कर देती और हमेशा मेरा ध्यान रखती । बाबा हमेशा ही मुझे बच्चे की तरह प्यार करते रहे | वह हमेशा मुझे शिक्षा देते जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए, भाग्य भी उसी व्यक्ति  का साथ देता है जो साहसी होता है | उस दिन जब वे मुझे स्कूल से घर ला रहे थे तो बहुत तेज बारिश हो रही थी। मैं कहीं भीगकर बीमार न पड़ जाऊं इस डर से उन्होंने अपनी साइकिल एक पेड़ के नीचे रोक ली। सड़क पर पानी भरा था। मैं उनसे बार-बार जिद कर रहा था, मुझे बारिश में नहाना है। जल्दी घर चलो, और बाबा मेरी एक नहीं सुन रहे थे, बल्कि वे मुझे पेड़ के पत्तों से गिरते टप-टप पानी से भी बचाने का प्रयास कर रहे थे। तभी बारिश कुछ धीमी हुई तो मैं उनसे बोला, 

अब तो चलो ना बाबा बारिश रुक गई है। 

लेकिन उनका जवाब था, सड़क पर पानी भरा है। ऐसे में साइकिल नहीं चलेगी।

पानी में साइकिल नहीं चलेगी तो फिर क्या चलेगा बाबा?

नाव, पानी में नाव चलती है।

फिर आप भी नाव चलाओ ना बाबा

तब उन्होंने मेरे बस्ते से एक कॉपी का एक कागज निकालकर नाव बना दी कागज की वह नाव पानी में तैरने लगी फिर जब भी बारिश होती तो मैं उनसे नाव बनवाकर तैराता, लेकिन वह कुछ दूर चलती और फिर डूब जाती। जब वह चलती तो मैं ताली मारकर खुशी से उछल पड़ता था और जब डूबती तो मायूस होकर उनसे पूछता यह क्यों डूब जाती है। जवाब में बाबा मुझे दूसरी नाव बनाकर दे देते। समय बीतने के साथ मैं बड़ा होता गया लेकिन बाबा हमेशा ही मुझे बच्चे की तरह प्यार करते रहे | जब मैं कॉलेज में पहुंचा तो पिताजी को अचानक व्यवसाय में घाटा लग गया। उनकी तबीयत भी खराब रहने लगी | ऐसे में मां ने हिम्मत नहीं हारी अपने तिनके तिनके करके जोड़े रुपए से मेरी पढ़ाई जारी रखी | बहने दोनों बड़ी थी, जिनकी शादी हो चुकी थी | पिताजी की बीमारी  का खर्च और मेरी पढ़ाई का खर्च, इसके अलावा घर में हम चार सदस्य - मैं, बाबा, मां और पिताजी का घर खर्च, सच बड़ा ही कठिन  समय आ गया। मां के एक-एक करके सारे गहने बिक गए फिर भी उन्होने मेरी पढ़ाई पूरी करवाई | धीरे - धीरे पिताजी की तबीयत मे भी सुधार होने लगा | पिताजी नौकरी करने  लगे जिससे घर खर्च चलाने में कुछ आसानी हो गई थी | स्नातक की परीक्षा का परिणाम आया तो मन फूला नहीं समाया | पूरे कॉलेज में प्रथम स्थान आया था मेरा | मां तो और आगे पढ़ाना चाहती थी, लेकिन घर के हालात कुछ ठीक नहीं थे इसलिए नौकरी करने की ठान ली | लगातार छह महीने धक्के खाए, नौकरी नहीं मिली | लेकिन जब भी हार मानता तो बाबा की बचपन में सुनाई कहानी फिर मन में इतना जोश भर देती कि एक बार फिर उठ खड़ा होता अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने को | फिर ऐसे में बाबा का प्रतिदिन मेरा साहस बढ़ाना मेरी हार को भी जीत में बदल देता था | कुछ समय बाद पिताजी के एक मित्र ने दिल्ली में मेरी नौकरी लगवा दी | नौकरी छोटी थी परंतु मैंने घर के हालात देखते हुए करना ही उचित समझा और चल दिया दिल्ली | जब बाबा और पिताजी घर से  रेलवे स्टेशन छोड़ने आए तो मां चाहा कर भी अपने आंसू रोक नहीं पायी और उनसे जल्दी ही अच्छी नौकरी मिलते ही सब को दिल्ली ले जाने का वादा कर दिया मैंने और फिर स्टेशन पर बाबा का गाड़ी के साथ - साथ चलते हुए आंखों से गिरते हुए आंसू को देखकर मैं भी कहां  रोक पाया अपने आंसू | शायद कभी घर से दूर नहीं रहा इसलिए बहुत कठिन लग रहा था | धीरे - धीरे मेरा काम मैं मन लग गया | घर से जब भी फोन आता मुझे सब की बहुत याद सताती थी | बाबा हमेशा फोन पर बोलते साहस कभी मत छोड़ना अपने को कभी भाग्य के भरोसे मत छोड़ना क्योंकि भाग्य तो साहसी व्यक्ति का ही साथ देता है | समय गुजरता गया और फिर एक दिन मन खुशी से झूम उठा | मुझे एक कंपनी मे सीनियर मैनेजर की जगह मिल गई | यह सब बाबा की ही शिक्षा का नतीजा था। अनेकों बधाई संदेश आने लगे, ऐसे में यह खुशी सबसे पहले बाबा तथा मां को  देना ही  उचित समझा | जैसे ही मैं फोन के पास पहुंचा, फोन की घंटी बजी, मन में विचार आया कहीं बाबा को पहले ही आभास तो नहीं हो गया मेरी तरक्की के बारे में और उन्होंने भी बधाई देने के लिए फोन किया हो | तभी मैंने फोन उठाकर कान  से लगाया तो रिसीवर हाथ से छूट गया , हाथ कांपने लगे |  हां फोन पिताजी का ही तो था, कैसे सुन पाता आसानी से, बाबा नहीं रहे | तुरंत कंपनी की गाड़ी से अपने पैतृक  निवास की ओर चल दिया | रास्ते में  उनका रेल के साथ दौड़ना, उनकी शिक्षाप्रद कहानियां सुनाना, मुझे गोद में उठाकर स्कूल छोड़ना और लेकर आना सब कुछ एक ही पल में आंखों के सामने घूमने लगा और घूमने लगी कागज की वह नाव जो बारिश के पानी में चलती थी  | कुछ ही देर में घर पहुंचा तो आंसू रोक नहीं पाया मैं और बाबा की कुर्सी पर निढ़ाल सा जा बैठा | आज उन्हें हमसे बिछड़े हुए 11 साल हो गए लेकिन मैं उन्हें पल भर के लिए भी नहीं भूल पाया | और आज मैं समझ चुका हूं, नाव कुछ दूर चल कर क्यों डूब जाती थी। आज भी बारिश होते ही मुझे बाबा की वह कागज की नाव याद आ जाती है और बाबा मेरे मन में मेघ बनकर उमड़ पड़ते हैं। 



लेखक  : प्रिन्स सिंहल

पता : 73 , अलकापुरी, 

अवसर (राजस्थान)  301001

email : princesinghl.perfect25@gmail.com

Mobile : 9509877973

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