जब भी पडोसी श्याम सुन्दर जी से बात होती तो मै अपने ऊपर गर्व सा महसूस करने लगता.
श्याम जी तीन बेटियों के बाप थे और बेटा नही दिया था भगवान ने. उनकी बातो में सदा इसका दुःख छिपा होता जबकि मै एक बेटे का बाप होने के नाते अपने आप को उनसे ऊपर समझने लगा. बातो से तो वो भी कुछ ऐसा ही प्रकट करते. हम दोनों ही व्यापारी थे, वे कपड़े के और मै कागज़ का. मुझे अपने काम की भी चिंता नही थी सोचता था बेटा बडा होगा तो संभाल लेगा, जबकि श्याम जी अपने व्यापार को किसे दे. तीनों बेटियों में बाँट दे, लेकिन बेटियाँ तो ब्याह कर अपने घर चली जायेगी फ़िर कोन बनेगा उनके भुढापे का सहारा.
बच्चे बडे हुए तो श्याम जी ने एक एक करके तीनों बेटियों का विवाह अच्छे घरों में किया, तीनों ही बेटियाँ अपने ससुराल में खुश थी, लेकिन श्याम जी अकेले हो गये. जिस बात की चिंता उन्हें जवानी से सताती आ रही थी, अब उस परेशानी का सामना उन्हें करना पड़ रहा था और मै सोचता था की मै बहुत खुश नसीब हूँ जो इस चिंता से मुक्त हूँ. मेरे बुढ़ापे का सहारा मेरा बेटा हमेशा मेरे पास रहेगा. यह कभी कही नही जायेगा, बल्कि घर में एक बहु लेकर ही आयेगा.
उस दिन जब मै शाम को बरामदे में बैठा चाय पी रहा था तब बेटे ने अचानक बात शुरू की ...... पिताजी मेरे एक मित्र के पापा मेरी नौकरी विदेश में लगवा रहे है और मै ये मौका खोना नही चाहता.
मैंने उसे रोकने के लिये बहुत समझाया, लेकिन उसने मेरी एक न सुनी और अपनी कहकर चला गया. उसके जाने के बाद मै घंटों चिर मुद्रा में बैठा यही सोचता रहा कि आखिर हम बेटा पैदा होने की इच्छा क्यों रखते हैं.