कहानी- रॉकी का दर्द
रॉकी मिस्टर माइक और पैगी की पालतू बिल्ली थी। वह हर समय घर के अंदर ही रहती थी। वे लोग उसे एक मिनट के लिए भी घर से बाहर नहीं जाने देते थे। पांच साल से रॉकी उनके घर की सदस्य बनी हुई है। उन्होंने उसे पूरी तरह सब कुछ सिखा कर...बहुत प्यार से उसका लालन-पालन किया था।
रॉकी समय पर अपने स्थान पर जाकर सो जाती थी...समय पर अपना खाना खा लेती थी। घर में कहीं भी गंदगी नहीं करती थी। रॉकी का वजन भी अन्य बिल्लियों की अपेक्षा बहुत अधिक था। वह बिल्कुल कुत्ते की कद-काठी की थी।
मुझे अमेरिका में कुछ दिन मिस्टर माइक और पैगी के घर रहने का अवसर मिला था। तब मेरी मुलाकात रॉकी से हुई थी। वह सबके साथ बहुत ही प्रेम से रहने वाली बिल्ली थी। रॉकी का रंग स्लेटी-काला था... आंखें भी बहुत बड़ी-बड़ी थी। रात में अचानक कोई रॉकी को देख ले तो वह डर से बेहोश हो सकता था।
दो दिन में ही रॉकी मेरे साथ कॉफी घुलमिल गई थी। मुझे देखते ही पूंछ हिला-हिला कर प्यार जताने लगती थी। वह सभी के साथ बहुत मित्रवत रहती थी। रॉकी मिस्टर माइक और उनकी पत्नी पैगी के साथ सोफे पर कंबल के ऊपर सोती थी। अगर मैं यह कहूं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी कि एक ऊंचे घराने के छोटे बच्चे की तरह रॉकी को सभी सुविधाएं प्राप्त थी।
वह बहुत ही समझदार व पारिवारिक बिल्ली थी। जब घर में कोई नहीं होता था तो वह खिड़की में बैठकर बाहर झांककर आने- जाने वाले सभी प्राणियों को ध्यान से देखती रहती थी। उनके घर के बाहर तरह- तरह पक्षी उड़ते रहते थे। बड़ी-बड़ी गिलहरियाँ चहलकदमी करती रहती थीं। रॉकी
उन सबकी शरारतों को बड़े ध्यान से एकटक देखती रहती थी। कभी कभी कोई चिड़िया उसकी खिड़की पर चोंच लगाकर शीशे में से कोई बात कर जाती थी।
मैंने एक दिन अकेले में रॉकी की आंखों में बहुत कुछ पढ़ा...मानो वह कह रही हो मुझे भी अपने मित्रों के साथ खेलना है...सुनो मैं भी पूरी आजादी के साथ बाहर घूमना चाहती हूं...अपने दोस्तों से मिलना चाहती हूं।
रॉकी मेरी तरफ मुंह किए हुए करुणा भरी आंखों से मुझसे बहुत कुछ कह रही थी...सुनो, मुझे यहां कोई दुख नहीं है...पर मानव मेरे साथ लुकाछिपी नहीं खेल सकता है। मैं पेड़ों पर, घर की छतों पर उछल कूद करना चाहती हूं..सड़क तथा घर के पिछवाड़े में दौड़ना चाहती हूँ।
मुझे भी बाहर की दुनिया देखनी है।अब यह मखमली बिस्तर मुझे अच्छा नहीं लगता है...ना जाने कितना समय हो गया मैंने धूप का सेवन नहीं किया। मैं भी छम-छम करके बरसात के पानी में खेलना चाहती हूँ। ऐसी ही ना जाने कितनी बातें उसकी आँखों से झलक रहीं थीं...पर मैं ईश्वर से प्रार्थना करने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी।
यह मानव भी कैसा निर्दयी प्राणी है जो कि अपने झूठे सुख के लिए
पशु-पक्षियों एवं जीव जंतुओं तक को नहीं छोड़ता है।उनका नैसर्गिक जीवन छीनने पर उतारू रहता है।
अपने शौक के लिए बेजुबान पशु पक्षियों को चारदीवारी में कैद करके रखना कहां तक उचित है ?इस प्रश्न पर गहन अध्ययन व सोच -विचार की आवश्यकता है।
डॉ. निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम