हिन्दू धर्म (तथाकथित, क्योकि हिन्दू कोई धर्म ही नहीं है), वेदों, पुराणों और शास्त्रों पर आधारित है, लेकिन सभी पुराण और शास्त्र में विभिन्नता है, उनमे एक मत नहीं है. जब पुराणों में एक मत नहीं है तो कौन सा सही है या कौन सा गलत है? कहते है धर्म की जीत होती है, सत्य की जीत होती है लेकिन उनकी जीत के लिए अधर्म और असत्य का होना भी आवश्यक है, यदि अधर्म और असत्य नहीं होगा तो सत्य और धर्म की महत्ता समझ ही नहीं आएगी. ईश्वर के दर्शन भी नहीं होंगे क्योकि उनको अवतार लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी? रावण था तो राम को आना पड़ा, कंस था तो कृष्ण को आना पड़ा. एक पुराण के अनुसार जब कलयुग का आरम्भ हुआ तो ऋषि नाच रहे थे, खुशियां मना रहे थे. उनसे जब पूछा गया कि कलयुग आने पर आप खुश क्यों है तो उनका जवाब था कि कलयुग से अच्छा कोई दूसरा युग नहीं है, सतयुग में ईश्वर के दर्शन के लिए हज़ारों साल तपस्या करनी पड़ती थी, त्रेता युग में कुछ सौ साल और द्वापर युग में कुछ दिन या कुछ साल, और अब कलयुग में सिर्फ पूजा करने मात्र से ही दर्शन हो जायँगे, मनोरथ पुरे हो जाएंगे, तो बताओ यह ख़ुशी की बात नहीं है? शायद यही कारण है कि सतयुग से लेकर द्वापरयुग तक कही भी मंदिर बनाने या राजाओं द्वारा मंदिरों की स्थापना का कोई विवरण नहीं है. कलयुग में ही लिखी कुछ कहानियों में पांडवो के मंदिर बनाने का वर्णन मिलेगा लेकिन जो वेद है पुराण है उनमे कही भी मंदिर बनाने का उल्लेख नहीं है. राम को भी समुन्द्र किनारे रेत का शिवलिंग बनाना पड़ा था, क्योकि वहाँ शायद कोई मंदिर नहीं होगा. ऋषि की ख़ुशी का मतलब अब समझ में आ गया कि इन संतों ने बहुत कड़ी मेहनत कर ली और अब आराम से बैठ कर खाने और मज़े करने का समय आ गया, इसलिए कलयुग में संतों महात्माओं की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, धनाधन आश्रम खुल रहे है और संत वहाँ राम या कृष्ण की भक्ति नहीं कर रहे बल्कि रासलीला कर रहे है. राजनीति आज उनकी चौखट में पड़ी है जिस पर पैर रख कर ये संत महात्मा चल रहे है. यही कारण रहा होगा कि ऋषि बहुत खुश थे? (आलिम)