इच्छाएं ना हो तो जीवन ठहर जाएगा,
इच्छाएं ही हो तो जीवन ज़हर हो जाएगा.
कृष्ण ने कहा कि मैंने मन बनाया है जो इच्छाओं के पीछे भागता है, मैंने बुद्धि दी जो इन इच्छाओं पर नियंत्रण कर सके और शरीर या देह दी है, जो किर्यान्वित कर सके. देह बिना कर्म नहीं किया जा सकता, इच्छाओं को पूरा नहीं किया जा सकता. इस देह में पांच इन्द्रियाँ है जो आनंद का बोध कराती है. आत्मा को आनंद का बोध नहीं होता, इसलिए आत्मा सदैव ही शरीर ढूंढती है ताकि वो इन्द्रियों द्वारा आनंद प्राप्त कर सके. आनंद में ये देह भूल जाती है कि वो सिर्फ आनंद के लिए ही नहीं है, बल्कि कर्म के लिए है और वो स्वयं अपना विनाश कर लेती है. इच्छाओं के घोड़े पर सवार होना ठीक है मगर बुद्धि की लगाम से उसे नियंत्रित कर कर्म करना ज्ञानी जनो का काम है. अज्ञानी या तो इच्छाओं को ही सच मान उनके पीछे भागते है, और अपने को ज्ञानी समझने वाले इच्छाओं के दमन को सच मानते है, वे दोनों ही अज्ञानी है, इच्छाओं का होना ज़रूरी है और उन पर नियंत्रण भी ज़रूरी है. इच्छाओं का दमन कर जो सन्यासी हो जाते है , दरअसल वो अभिमानी है मुझ ईश्वर पर विजय प्राप्त करना चाहते है, प्रकृति के विरुद्ध कर्मयोग से भागे हुए लोग है, वो स्वार्थी है, और स्वर्ग प्राप्ति के लिए इस मृत्युलोक में कर्मो का त्याग कर अपने को महान बताते है. उनका त्याग शुद्ध नहीं है अशुद्ध है , सच्चा त्याग कर्मो के फल और इच्छाओं का का त्याग है. इच्छाओं का त्याग और इच्छाओं के दमन में अंतर है, कर्मो का त्याग करना इच्छाओं का दमन है और कर्मो के फल का त्याग नियंत्रण है. परिवार का, संबंधो का त्याग वो लोग करते है जिन्हे स्वस्वार्थ ने घेर लिया है और दंभ वश , स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से वो अपने कर्मो का , अपने कर्तव्यों का त्याग कर देते है. पाखंडी है वो सन्यासी, असली सन्यासी वो है जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कर्म करते हुए उसके फल की इच्छा का त्याग कर देते है. क्योकि वो जानते है कि कर्मो का फल उनके हाथ में नहीं है, वो सिर्फ ईश्वर के हाथ में है फिर भी कर्म करते है. इसलिए युद्ध में जीत होगी या हार इसका निर्णय अर्जुन या दुर्योधन नहीं बल्कि मैं करूंगा और जहाँ सत्य है वहाँ मैं हूँ और जहाँ मैं हूँ वहाँ विजय है. यह है संन्यास कर्म योग. (आलिम)