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'बीफ़ खाना पर्यावरण के लिए नुक़सानदेह है'

21 अक्टूबर 2015

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बीफ़ खाने को लेकर देश भर में बेचैनी है और सभी तरह के नेता सांडों की तरह भिड़ रहे हैं. धार्मिक मत तो एक पक्ष है लेकिन बीफ़ न खाने को लेकर बहुत मजबूत पर्यावरणीय वजहें भी हैं.
संयुक्त राष्ट्र के पर्वायवरण कार्यक्रम ने बीफ़ को 'जलवायु के लिए नुक़सानदेह गोश्त' बताया है.
बीफ़ के हर ग्राम को पकाने के लिए बहुत सारी ऊर्जा ख़र्च होती है. औसतन हर एक हमबर्गर को बनाने में वातावरण में तीन किलो कार्बन उत्सर्जन होता है.
आज अपने ग्रह को बचाने के लिए ऐसे खाने की ज़रूरत है जो लंबे समय तक नुक़सान न दे और दुर्भाग्य से गोश्त का उत्पादन बहुत ऊर्जा खाने वाली प्रक्रिया है.
विज्ञान के क्षेत्र के जाने माने लेखक पल्लव बागला ने समाचार एजेंसी पीटीआई के लिए लिखे गए एक लेख में कहा है कि रोम में संयुक्त राष्ट्र इकाई फ़ूड एंड एग्रीकल्चर संगठन (एफ़एओ) की रिपोर्ट के मुताबिक़ गोश्त खाने वाले और ख़ासकर बीफ़ खाने वाले दुनिया के पर्यावरण के प्रति सबसे कम दोस्ताना हैं.

यह अचरज की बात लग सकती है लेकिन दुनिया में बीफ़ उत्पादन जलवायु परिवर्तन की एक मुख्य वजह है. कुछ तो यह भी कहते हैं कि बीफ़ गोश्त उत्पादन उद्योग का 'शैतान' है.
लेकिन यह भी कह दें कि बीफ़ खाने के संदेह में एक आदमी की पीट-पीटकर हत्या को किसी भी समाज में सही नहीं ठहराया जा सकता.
विशेषज्ञों का कहना है कि बीफ़ छोड़ देने से दुनिया का कार्बन उत्सर्जन कारों के इस्तेमाल के मुक़ाबले कई गुना कम हो जाएगा!
अगर आप आंकड़ों पर नज़र डालें तो समझ आ जाएगा कि क्यों मवेशी उत्पादन का हिस्सा गैसों के उत्सर्जन के ज़रिये ग्लोबल वॉर्मिंग में परिवहन क्षेत्र के मुकाबले अधिक है जिससे जलवायु परिवर्तन हो रहा है.
एफ़एओ के अनुसार वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में मवेशी क्षेत्र का हिस्सा 18 फ़ीसदी है जबकि परिवहन क्षेत्र का 15 फ़ीसदी.

'लाइवस्टॉक्स लॉंग शैडोः एनवायरोन्मेंटल इश्यू एंड ऑप्शन' नामक अध्ययन में एफ़एओ का निष्कर्ष है कि "मवेशी क्षेत्र एक मुख्य कारक है और जलवायु परिवर्तन में इसका हिस्सा परिवहन क्षेत्र से ज़्यादा हिस्सा है."
पर्यावरण हितैषी इस बारे में आवाज़ें उठाने लगे हैं और गोश्त खाने वालों को सोचने को कह रहे हैं. इनमें ताज़ा नाम जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए कुछ हफ़्ते बाद पेरिस में होने वाले बड़े जलवायु सम्मेलन की करिश्माई फ्रांसीसी राजदूत लॉरेंस तुबिआना का है.
उन्होंने कहा, "बड़ी मात्रा में गोश्त खाए जाने से बहुत सारी चीज़ें नष्ट हो रही हैं (इसके लिए अभियान होना चाहिए) और बहुत ज़्यादा गोश्त खाने वालों को इसे रोकना चाहिए. कम से कम एक एक दिन तो बिना गोश्त के गुज़ारो."
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के 2012 के एक अनुमान के अनुसार, भारत में 51.20 करोड़ मवेशी हैं जिनमें से गाय और भैंस मिलकर 11.10 करोड़ हैं.

भारत में ज़्यादातर जानवरों को मारने के लिए नहीं दूध और जुताई के लिए पाला जाता है. यूएनईपी का अनुमान है कि 2012 में दुनिया में 14.30 अरब मवेशी थे.
इसलिए भारतीय निश्चिंत हो सकते हैं कि वह गोश्त के मामले और मवेशियों की संख्या के हिसाब से पर्यावरण हितैषी ही माने जाएंगे.
यूएनईपी की 2012 में किए गए एक ऐतिहासिक अध्ययन 'गोश्त उत्पादन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन' के अनुसार एक भारतीय औसतन 12 ग्राम गोश्त रोज़ खाता है. यह वैश्विक औसत 115 के मुकाबले दस गुना तक कम है.
इसकी तुलना में अमरीका प्रति व्यक्ति रोज़ 322 ग्राम गोश्त के साथ सबसे ऊपर है. चीन में यह मात्रा 160 ग्राम है. इस तरह गोश्त खाने वाला एक औसत अमरीकी का भारतीय मांसाहारी आदमी की तुलना में ग्लोबल वॉर्मिंग में रोज़ाना 25 गुना हिस्सा होता है.

अमरीका के पशुपालन, दुग्धपालन और मत्स्यपालन विभाग के 2012 के अनुमान के अनुसार, देश में 59 लाख टन गोश्त का उत्पादन हुआ जिसमें पोल्ट्री (ज़्यादातर मुर्गा) का हिस्सा करीब आधा था और बीफ़ का हिस्सा पांच फ़ीसदी से भी कम था.
इसकी तुलना में 2009 में दुनिया में 27.80 लाख टन गोश्त का उत्पादन हुआ जिसका अर्थ यह हुआ कि भारत का दुनिया के कुल गोश्त उत्पादन में हिस्सा सिर्फ़ दो फ़ीसदी था जबकि आबादी दुनिया की 17 फ़ीसदी है.
इसमें कोई शक नहीं कि गोश्त में इंसान के सही विकास के लिए ज़रूरी प्रोटीन और पोषक तत्व होते हैं. लेकिन दूध इसका अच्छा विकल्प है.
अमरीका के येल विश्वविद्यालय के 2014 के एक शोध के अनुसार, बीफ़ के उत्पादन के लिए अन्य मवेशियों के मुकाबले 28 गुना ज़्यादा जगह चाहिए होती है और यह ग्लोबल वॉर्मिंग में 11 गुना ज़्यादा योगदान देता है.

इस शोध को नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसिस की कार्यवाही में प्रस्तुत किया गया जिसका निष्कर्ष था "बीफ़ का उत्पादन कम करके खाने की ज़रूरत के लिए पर्यावरण की क़ीमत चुकाने को प्रभावी ढंग से कम किया जा सकता है."
ब्रिटेन के लीड्स विश्वविद्यालय के टिम बेंटन का अमरीकी शोध से कोई लेना-देना नहीं है. वह कहते हैं, "कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए लोग जो सबसे बड़ा योगदान दे सकते हैं वह कार छोड़ना नहीं बल्कि रेड मीट खाना उल्लेखनीय रूप से कम करना है."
बीफ़ उत्पादन जल सरंक्षण के लिहाज़ से भी ख़राब है क्योंकि गेहूं और चावल जैसी मुख्य फ़सलों के मुकाबले बीफ़ के लिए पशुपालन में करीब 10 गुना पानी लगता है.
इसके विपरीत पोर्क उत्पादन में बीफ़ के लिए पशु पालने के मुकाबले एक तिहाई पानी लगता है. इसके अलावा पशुओं की डकार और पाद में जलवायु परिवर्तन करने वाली बहुत तेज गैस मीथेन होती है.

'मार्श गैस' के नाम से भी जाने जानी वाली यह गैस पशुओं की आंत में तब बनती है जब एक जीवाणु खाने को पचा रहा होता है. ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए मीथेन कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले 21 गुना ज़्यादा ज़िम्मेदार है.
एक स्वीडिश अध्ययन के आंकड़ों के आधार पर यूएनईपी ने कहा, "ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के संदर्भ में एक घर में एक किलो गोश्त खाए जाने का अर्थ है 160 किलोमीटर तक गाड़ी चलाना."
इसका अर्थ यह हुआ कि नई दिल्ली से आगरा तक कार से यात्रा करने से ग्लोबल वॉर्मिंग पर जो असर पड़ेगा वह एक किलो बीफ़ खाने के बराबर होगा! इसलिए अचरज की बात नहीं कि बीफ़ को पर्यावरण के लिए बेहद अहितकारी माना जाता है.
हालांकि दुनिया के सूखे और बंजर इलाक़ों में स्थानीय लोग मवेशियों को 'सेविंग बैंक' मानते हैं क्योंकि वह मुश्किल मौसम में जान बचाने वाली चीज़ों में शामिल होते हैं.

गोश्त खाना भले ही 'ग्रीन' न हो लेकिन जैसे-जैसे लोग समृद्ध होते जा रहे हैं गोश्त फ़ैशनेबल और समृद्धि का प्रतीक बनता जा रहा है. एफ़एओ का अनुमान है कि 2050 तक दुनिया में गोश्त का उपभोग 46 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा.
दुनिया के पर्यावरण पर नज़र रखने वाली संस्था यूएनईपी की सलाह है कि 'जलवायु के लिए कम नुक़सानदेह' गोश्त की तरफ़ बढ़ा जाए. संस्था ज़ोर देकर कहती है कि "स्वस्थ भोजन न सिर्फ़ व्यक्ति के लिए बल्कि संपूर्ण ग्रह के लिए भी महत्वपूर्ण है."

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