'पंद्रह साल की थी, जब शादी हुई। निकाह के बाद जाना कि शौहर की उम्र मेरे पिता से भी कुछ ज्यादा है। फिर तो एक के बाद एक राज खुलते चले गए। वो देख नहीं पाता था और न ही कोई काम-धाम करता। गांव में लड़की नहीं जुटी तो मुझे खरीद लाया।
कुछ हजार के लिए मेरे ही अब्बू ने मेरा सौदा कर डाला था। मैं रोई-गुस्साई, लेकिन सब बेकार। अब मैं पारो हूं। खरीदी हुई दुल्हन, जिसे दोबारा-तिबारा या तब तक बेचा जाएगा, जब तक जिस्म में कसावट है।
मेवाती लहजे में मुर्शिदा अटक-अटककर अपनी कहानी सुनाती हैं। कैमरा देखकर हंसती भी हैं- वो हंसी, जिससे कदम मिलाकर खिलखिलाने का दिल नहीं होता, घबराहट होती है।
दर्द का अगर कोई चेहरा होता, तो शायद वो मुर्शिदा जैसा होता। पका हुआ रंग। सुंदर लेकिन सपनों से खाली बेजान आंखें और उम्र से पहले ढल चुकी देह। वे हरियाणा के नूंह का वो सच हैं, जो वहां की सूखी जमीन से भी डरावना है।
दिल्ली से सड़क के रास्ते चलें तो लगभग ढाई घंटे में हम नूंह पहुंच जाएंगे। मंजिल करीब आते-आते नेशनल हाईवे- 48 की तस्वीर बदलने लगती है। छांवदार पेड़ों की जगह कंटीले झाड़ दिखेंगे। खाने-पानी के ठिए कम होते जाएंगे। गाड़ी से उतरो तो लू के थपेड़े चेहरे पर थप्पड़ मारते हैं। ये शुरुआत है। शहर-ए-नूंह में ऐसा बहुत कुछ है, जो हमारी आरामतलब सोच को जड़ से हिला दे। ऐसी ही एक चीज है- खरीदी हुई दुल्हनें।
यहां हर 1000 पुरुषों पर 912 औरतें हैं। कुल 88 औरतें कम। इन मिसिंग स्त्रियों की कमी दूसरे गरीब राज्यों से पूरी होती है। बंगाल, बिहार, झारखंड और असम जैसे राज्यों से लड़कियां खरीदकर लाई, और यहां के 'एक्स्ट्रा' पुरुषों से ब्याह दी जाती हैं। 13 से लेकर 25 साल तक की ये लड़कियां पारो या मुलकी कहलाती हैं, यानी मोल ली हुई। मुर्शिदा ऐसा ही एक चेहरा हैं।
नूंह के घागस गांव में कच्चा-पक्का सा घर है इनका। हम जब वहां पहुंचते हैं तो ये अपने ठिकाने की बजाए कहीं और मिलने को कहती हैं। वहां खुलकर बात नहीं हो पाती। इस्तेमाल से घिसा हुआ हल्के नारंगी रंग का सूती दुपट्टा ओढ़े मुर्शिदा दो बच्चों के साथ वहां पहुंची, जहां मैं ठहरा हूं।
दो बच्चे घर पर हैं, पिता की देखभाल के लिए- वो ठेठ मेवाती में बताती हैं। अंधे पति को थोड़ी देर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जा सकता, तिस पर उन्हें गुस्सा भी बहुत आता है। वजहें ही वजहें हैं, जो 20 के शुरुआती पड़ाव पर खड़ी युवती को बूढ़ा बना दें।
बिहार के कटिहार से दशकभर पहले आई ये लड़की अपने बचपन की बोली भूल चुकी। ‘अंगिका!’ मैं याद दिलाती हूं। वो हाथ से बरज देती है- मुझे याद नहीं। ‘हिंदी!’ मुझे याद नहीं। मुर्शिदा सब भूल चुकीं। अपना गांव, गांव की नदी, बचपन, बोली और अपना आप भी।
मेवाती में याद करती हैं- पंद्रह साल भी नहीं हुए थे, जब गांव से यहां आई। जीजा ने पिताजी से कहा था कि वो उनकी लड़की की शादी कराएंगे। शादी हुई भी, लेकिन अपने से तीसेक साल बड़े आदमी से। वो देख भी नहीं पाता और लंगड़ाकर चलता है।
अड़ोस-पड़ोस के गांव से भी जब किसी ने लड़की नहीं दी तो बुढ़ाते हुए उस आदमी ने मेरे पिता को 15 हजार देकर मुझे खरीद डाला। ये सब शादी के बाद पता चला।
मैं रो रही थी। वापस अपने गांव लौटाने के लिए गोड़ (पैर- ये पहला शब्द था, जो मुर्शिदा ने कटिहार की भाषा में कहा) पकड़ रही थी। मां की अब्बू से खूब लड़ाई भी हुई। वो कलप रही थी कि इससे अच्छा तो बेटी को कोसी में बहा देते।
अब्बू भड़क गए। बेतरह चिल्लाने लगे। वो कह नहीं सके कि नदी में बहाने से पैसे नहीं मिलते। ब्याहने के उन्हें 15 हजार रुपए मिले थे। ये पैसे किसी मजदूर के लिए काफी तो नहीं, लेकिन दो-तीन महीने का खर्च निकल जाता है।
मुर्शिदा 15 या 20 हजार के बीच अटक जाती हैं। जोड़-गुणा करने लगती हैं। वो समझना चाहती हैं कि 15 साल की सपनीली आंखों वाली बच्ची का मोल कितना होना चाहिए। मेरा जन्म पिता के दो-तीन महीने का खर्चा चलाने के लिए हुआ था- मुर्शिदा की सूनी आंखें मानो शिकायत कर रही हों।
कब्र में समाया आदमी विरोध नहीं करता, वो बस आंखें मींचे रहता है। मैंने भी बीती जिंदगी से आंखें मींच लीं। ये दूसरी जिंदगी है।
अब मैं मुश्किल सवालों की तरफ बढ़ती हूं। पति के साथ की बात पूछती हूं, पूछती हूं कि पति चाव उठाता है या नहीं!
खाली आंखें हंसती हैं। मुर्शिदा कहती हैं- ईद आ रही है। गांवभर की औरतें सजती हैं। सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनती हैं। जेवर झमकाती हैं। मेरे पास कुछ नहीं। नई थी, तब भी मैं पारो थी, दुल्हन नहीं। पति ने मेहर में सोने के कुंडल देने का वादा किया था। मैंने याद दिलाया तो कहा- बाप के घर चली जा। वही पहनाएगा। एकाध बार लत्ते खरीदने को कहा तो गंदे लत्ते की तरह धुनी गई। अब जो है, वही पहनकर ईद मनाती हूं।
मैं गौर से देख रही हूं। मुर्शिदा के पांवों में पायल पड़ी है। उसकी तरफ इशारा करता हूं। वो बताती हैं- नकली है, गिलट की।
वो अब लौटना चाहती हैं। पति भड़केगा। घर पर छूटे हुए बच्चे नाहक पिटेंगे। जाते-जाते मैं पूछ लेता हूं- शौहर के साथ आपकी कोई तस्वीर हो तो मुझे भिजवा सकेंगी! वो फिर हंसती हैं, वही घबराहट से भरती हंसी। ‘नहीं! कोई फोटो नहीं है हमारी।’ एक बच्चे को गोद में लटकाए, दूसरे को घसीटते हुए वो चली जाती हैं।
बाहर निकलकर मुर्शिदा का घर देखता हूं। आधा प्लास्टर, आधा कच्चा दिखता ये मकान उस लड़की के ख्वाबों का वो सोग गीत है, जो कोई नहीं गाएगा।
अरावली की पहाड़ियों से घिरे उस गांव से निकलकर हमारा अगला पड़ाव है मढ़ी गांव। मेरे लोकल मित्र राजुद्दीन जंग रास्तेभर कई बातें बताते हैं। बकौल राजुद्दीन, अगर किसी भी वजह से मर्द को बीवी नहीं जुटे तो वो गरीब राज्यों से औरत खरीद लाता है। ये औरतें एक नहीं, बल्कि कई बार बेची जाती हैं। ज्यादातर मामलों में ये पांच या इससे ज्यादा बार बिकती हैं। हर बार इनका निकाह भी होता है, ताकि ये तथाकथित शौहर की हर जरूरत पूरी कर सकें। उसके लिए देग पकाने और जानवर पालने से लेकर उसके बच्चे पालने और सोने तक।
बंजर रास्तों से होते हुए हम मढ़ी पहुंचते हैं, जहां हमारी मुलाकात सलीम से हुई। उनके पिता सरपंच थे। जीवन ऐसी ही औरतों को देखते बीता। सलीम से मिलना परत-दर-परत सारी बातें खोलता जाता है कि दलाल किस तरह से लड़कियों के घरवालों या सीधे लड़कियों को फुसलाकर लाते और यहां बेचते हैं। 13 साल की कोई बच्ची दिल्ली घूमने के सपने लिए आती है और गुलाम बनकर रह जाती है।
सलीम कहते हैं- जानवरों की मंडी देखी है कभी! वहां जिस्म देखकर भाव लगता है कि फलां पशु काम का है, या फलां बुढ़ा गया। इसी अंदाज में लड़कियों की भी बोली लगती है। उम्र जितनी कम होगी, कीमत उतनी ज्यादा होगी। ऐसी लड़की ज्यादा दिन तक जवान रह सकेगी, ज्यादा वक्त तक जिस्मानी जरूरतें पूरी कर सकेगी।
चौदह साल की बच्ची का निकाह अस्सी बरस के आदमी से हो जाता है। जब उसका मन भर जाए या वो मर-खप जाए तो लड़की दूसरे आदमी को बेच दी जाती है। वो एक से दूसरे मर्द के हाथ में जाते हुए बूढ़ी हो जाती है। अक्सर पारो कभी अपने मां के घर लौट नहीं पाती।
मैं पूछता हूं- लेकिन निकाह तो होता है! फिर शौहर की जिम्मेदारी नहीं बनती? सलीम कहते हैं- निकाह तो होता है, लेकिन रहती वे सामान ही हैं। जिसे पैसों की जरूरत है, वो बेचेगा। जिसे नया जिस्म चाहिए, वो खरीदेगा।
इंटरव्यू के बाद सलीम मुझे अपना गांव घुमाते हैं। वहां कोई भी पारो के बारे में बात करने को राजी नहीं। लौटते हुए वे झुंझलाते हैं- सबको भला दिखने की पड़ी है, बच्चियां भाड़ में जाएं।
आखिर में फिरोजपुर नमक की अदालत पहुंचते हैं, जहां गौसिया खान हमारा इंतजार कर रही हैं। हैदराबाद से चौदह साल की उम्र में ब्याहकर मेवात आई गौसिया किस्मतवाली हैं, जो उनकी बोली में अब भी हैदराबादी लहजा सलामत है। शुरुआत उनकी भी मुश्किल रही।
अरावली के पहाड़ों की तरफ देखते हुए वे याद करती हैं- मैं पहाड़ियां देखती और सोचती कि कैसे भी यहां से निकल भागूं। वहां से रेल गुजरती थी, मैं रोज उसकी आवाज सुनती और भागने के सपने देखा करती। दिन में कितनी ही बार ये होता।
कई साल बीत गए। फिर मुझे एक लड़का हुआ। वो दो साल का हुआ, तब जाकर पहली बार मुझे मां के घर जाने की इजाजत मिली। उसके पहले कुरान छूकर वादा लिया गया कि मैं वापस मेवात लौटूं। मैं खुशकिस्मत थी, जो मां से मिल सकी। ज्यादातर लड़कियां एक बार यहां पहुंचती हैं तो कभी निकल नहीं पातीं। यहीं मर-खप जाती हैं और किसी को भनक तक नहीं लगती।
पंछी के मरने पर भी इससे ज्यादा शोर होता होगा- गौसिया चलते हुए कह जाती हैं।