खुशबू - दो शब्द
राजीव रावत
तुम
मेरे मन के आंगन में
आकांक्षाओं के बिस्तर पर
जब सपनों के इंद्रधनुषी रंग सजाती हो-
कभी गुलाब सी शबनमी और कभी
रजनीगंधा सी महकाती हो-
तुम्हारी देहगंध से
निकलती है मदहोश करती अपराजिता के फूलों की अव्यक्त गंध-
ऋषि हो, देव हो साधरण मानव
कहां तोड़ पाता है
तुम्हारे कटीली आंखों में तैरते कमल
पुष्पों का अनुबंध -
तुम जब अपने प्यार का नीर
अपने घनेरे गेसुओं के बादलों को लहराते हुए बरसाती हो-
तब तुम
कस्तूरी मृग की तरह आती हुई खुशबु को
कहां जान पाती हो-
तुम्हारे
अधरों से महकते गुलाब
अंग अंग से छलकता हुआ शबाब-
महकता दरिया बनकर
कभी तारों की चादर ओढ़े चहकती बन कर महताब-
तन्हाई में
बन कर यादों की खुशबू बहुत सताती हो
कभी बेला और कभी रात रानी की
गंध लिए मेरे दिल-ए-बांगवा को
महकाती हो-
तुम
और यह फूलों की खुशबू
दोनों मेरे अंतर्मन को महकाते हैं-
सच कहता हूं
दोनों के बिना जीवन के मधुरपल
कहीं अधूरे रह जाते हैं--
राजीव रावत