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खुशबु - - दो शब्द

19 सितम्बर 2021

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खुशबू - दो शब्द
                 राजीव रावत



तुम
मेरे मन के आंगन में
आकांक्षाओं के बिस्तर पर
जब सपनों के इंद्रधनुषी रंग सजाती हो-
कभी गुलाब सी शबनमी और कभी
रजनीगंधा सी महकाती हो-

तुम्हारी देहगंध से
निकलती है मदहोश करती अपराजिता के फूलों की अव्यक्त गंध-
ऋषि हो, देव हो साधरण मानव
कहां तोड़ पाता है
तुम्हारे कटीली आंखों में तैरते कमल
पुष्पों का अनुबंध -

तुम जब अपने प्यार का नीर
अपने घनेरे गेसुओं के बादलों को लहराते हुए बरसाती हो-
तब तुम
कस्तूरी मृग की तरह आती हुई खुशबु को
कहां जान पाती हो-

तुम्हारे
अधरों से महकते गुलाब
अंग अंग से छलकता हुआ शबाब-
महकता दरिया बनकर
कभी तारों की चादर ओढ़े चहकती बन कर महताब-

तन्हाई में
बन कर यादों की खुशबू बहुत सताती हो
कभी बेला और कभी रात रानी की
गंध लिए मेरे दिल-ए-बांगवा को
महकाती हो-

तुम
और यह फूलों की खुशबू
दोनों मेरे अंतर्मन को महकाते हैं-
सच कहता हूं
दोनों के बिना जीवन के मधुरपल
कहीं अधूरे रह जाते हैं--
                               राजीव रावत

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत बहुत सुन्दर रचना

19 सितम्बर 2021

संगीता पाठक

संगीता पाठक

उत्कृष्ट लेखन आदरणीय 👌👌👌👌

19 सितम्बर 2021

srijan,srishti

srijan,srishti

बहुत सुंदर

19 सितम्बर 2021

राजीव

राजीव

19 सितम्बर 2021

बहुत बहुत आभार

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