मैं
उसे चौराहे पर मिला। वह एक अपरिचित व्यक्ति था; जिसके हाथ में लाठी, शरीर पर एक चादर और चेहरे पर एक अथाह दर्द का अज्ञेय परदा
था। हमारे इस मिलन में गरमी और प्रेम था। मैंने उससे कहा, ‘‘मेरे घर पधारिए और मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए।’’ और वह मेरे साथ हो लिया। मेरी पत्नी और बच्चे हमें द्वार पर
ही मिल गए। वे सब उससे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और उसके आने पर फूले न समाए। फिर हम
सब एक साथ भोजन के लिए बैठे। हम बहुत प्रसन्न थे और वह भी खुश था, किन्तु मौन। उसका मौन रहस्यपूर्ण था। भोजन के बाद हम आग के
पास आ बैठे। और मैं उससे उसकी यात्राओं की बाबत पूछता रहा। इस रात और दूसरे दिन
उसने हमें बहुत-सी कहानियां सुनाईं। किन्तु यह जो मैं लिख रहा हूं, यह पुस्तक उसके कटु दिनों का अनुभव है। यद्यपि वह स्वयं
अत्यन्त कृपालु तथा दयालु था, परन्तु ये कहानियां ! ये तो उसके
मार्ग की धूलि और धीरज की कहानियां हैं। और तीन दिन पीछे जब वह हमसे विदा हुआ तो
हमें यह अनुभव नहीं होता था कि अतिथि को विदा किया, वरन् ऐसा मालूम होता था, जैसे हममें से ही कोई बाहर वाटिका में गया है और उसे अभी घर
आना है।