मन का प्रेत
रामा को इस समय पैर बड़े भारी लग रहे थे। हर कदम मन भर का लगता था। बाबा सुबह से खेतों में काम कर रहे थे, दोपहर का खाना तो माँ दे आई थी लेकिन रात का खाना रामा को लेकर जाना था। माँ ने खाना रामा के हाथ में देकर सात बजे ही रवाना कर दिया ताकि वो जल्दी ही बाबा को खाना पहुंचा कर वापस आ जाए। मगर रामा रास्ते में दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलने लगा और खेलते-खेलते यहीं आठ बज गए। तब उसे खाने का ध्यान आया। उसके दोस्त तो खेलकर घर चले गए और दूर जूगनुओं की तरह दिखते हुए दियों के जंगल में गायब हो गए। खेत में जाने के लिए कोई पक्का रास्ता नहीं था और खेत था भी घर से करीब एक कोस दूर। वैसे तो रास्ते में पड़ने वाले खेतों में भी किसान रात को सोते थे मगर ये बात उस राह पर बढ़ने के लिए रामा का हौंसला ना बढ़ा सकी।
सामने घुप्प अंधेरे की गुफा मुंह फाड़े खड़ी थी। पगडंडी उस गुफा की जीभ जैसी लगती थी जो थोड़ी दूर जाकर अंधेरे में गुम हो गई थी। रात होते ही कोहरे के पिशाच ने सारे गांव को अपने लबादे में लपेटना शुरू कर दिया। आसमान पर तारे मुस्कुराते जान पड़ते थे। पूर्णमासी के चांद ने रामा पर तरस खाकर रास्ता देखने लायक रोशनी की कमी को पूरा कर दिया था।
सुनी हुई कहानियों के राक्षस और जिÂ उसकी कल्पना की दुनिया से निकलकर उसके रास्ते में आ गये थे। कभी उसे कोई जानवर कोहरे में दौड़ता दिखाई देता तो कभी हवा में उड़ती कोई आकृति दिखाई देती। कभी झींगुरों की आवाज उसे घुंघरुओं की आवाज जैसी लग रही थी तो दूर किसी सियार के रोने की आवाज चुड़ैल की रोने की आवाज लगती। उसकी धीमी चाल कोहरे को और घना कर रही थी। तभी उसे दूर कोहरे में नदी के किनारे वाले बरगद के पेड़ों के झुरमुट की बाह्य आकृति दिखाई देने लगी जिसे देखकर रामा के गले का पानी सूख गया। पास ही श्मशान की स्थिति ने उसकी बची हुई हिम्मत को तोड़ दिया। उसकी आंखों के सामने काल्पनिक पिशाच और चुड़ैलों के रेखाचित्र घूमने लगे। दस साल के बच्चों की परिकल्पनाएं बड़ों के मुकाबले अधिक सजीव होती हैं। मगर उसके कदम अभी भी बढ़ रहे थे। बरगद और नदी के सुने-सुनाएं किस्से उसे याद आने लगे। कुछ लोगों के मुताबिक उन पेड़ों के पास भूतों की एक टोली रात को आग जलाकर उसके चारों और घूम-घूमकर नाचते हुए अक्सर देखी जाती थी। कुछ का मानना था कि उसी नदी के पास एक कुबड़े बुड्ढे का प्रेत घूमता है जिसे कोढ़ हो जाने के कारण गांव से निकाल दिया गया था और वहीं नदी के पास उसने अपने आखिरी दिन काटे थे। एक कहानी जलपरी की थी जो रात गए नदी किनारे गाना गाती थी और भोर होते ही वापस लौट जाती थी।
मन के डर ने पैरों के बोझ को बढ़ा तो दिया मगर उन्हें पूरी तरह रोक नहीं पाया। माघ की ठंड में भी उसका शरीर पसीने से तर था। निशाचरों के लिए बाहर निकलने का समय हो गया। चमगादड़ की हल्की सी आवाज भी उस सÂाटे में साफ सुनाई देती थी। तभी रामा को अपने आसपास किसी जानवर की आहट सुनाई दी जो उसके थोड़ी दूर से निकलकर कोहरे के आगोश में समा गई। इस अदृश्य प्राणी ने डर को और हवा दे दी। फिर भी वो आगे बढ़ चला। दूर खेतों के बीच मचानों पर टंगी लालटेन उसे कुछ हिम्मत प्रदान कर रही थी।
थोड़ा आगे जाने पर उसे लगा जैसे रस्ते में कोई लाश पड़ी है। अब तो पसीना भी बाहर आने से डरने लगा। उसकी टांगें डर की गठरी का बोझ और नहीं ढो पाई और उसके कदम रुक गए। उसने वहीं पड़ी एक लकड़ी उठा ली और हरिनाम जपते हुए लाश को लकड़ी से टटोलने लगा तो लकड़ी उसमें धंस गई। उसे समझ में आ गया कि ये मात्र मिट्टी का एक ढेर है। उसे स्वयं पर हंसी आई और फिर वो जोर-जोर से हंसने लगा। इसमें खुशी कम और स्वांग अधिक था जिसने उसके डर को कुछ कम कर दिया। हाथ में छड़ी लेकर वो आगे बढने लगा।
बरगद के पेड़ अब साफ दिखाई देने लगे। बनावटी हंसी भी डर के मारे छू-मंतर हो गई। चलते-चलते जब बरगद के झुरमुट के पास पहुंचा तो उसे लगा जैसे कोई चादर ओढ़े और हाथ में लाठी लिए उकडू बैठा है। उसने अपनी छड़ी संभाल ली और हरीनाम जपता आगे बढ़ा। वो जितना आगे बढ़ता उसकी छड़ी पर पकड़ उतनी ही मजबूत होती जाती। लेकिन डर का कांटा अभी भी उसके हृदय में गड़ा हुआ था। उस समय हरिनाम उसके लिए तिनके का सहारा था। कभी-कभी हम इसी जुगनू की चमक को अपने नेत्रें की ज्योति बनाकर मुसीबत से निकल जाते हैं। इस चिंगारी से हम डर के ठूंठ में आग लगाकर उसपर हिम्मत के हथियार बनाते हैं।
हिम्मत और डर में अंदर ही अंदर युद्ध होने लगा। डर के बादलों से छनकर आती उम्मीद की किरणें ही उस बालक के लिए ऊर्जा पैदा कर रही थी। पेड़ों के पीछे से हर तरफ पीला प्रकाश फैल रहा था और भयावह आकृतियों का प्रतिबिम्ब कुहरे के पर्दे पर बन रहा था। भूतों की टोली के नाचने की कहानी रामा को सत्य मालूम होने लगी। अब उसे मौत निश्चित लगने लगी। मौत की निशि्ंचतता हमारे मन से डर को समाप्त कर देती है। तब जीवन में किसी से भी भय नहीं लगता। यही सोचकर रामा आगे बढ़ चला। पेड़ के नीचे पहुंचा तो बैठा हुआ आदमी लकड़ियों का ढेर बन गया। नदी किनारे गया तो देखा वहां आग जल रही थी और दो-तीन मरियल से दिखने वाले कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। शायद कोई मुसाफिर आग जलती हुई छोड़कर चला गया था। तभी उसे पानी में छप-छप की आवाज सुनाई दी उसने नदी के पानी में कुछ अंदर उतरकर देखने की कोशिश की तो वहां भी उसे एक कुत्ते के सिवाय कुछ ना दिखाई दिया। उसकी उम्मीद फिर जगने लगी वो चिल्ला-चिल्लाकर भूतों और प्रेतात्माओं को ललकारने लगा। उसने आग के पास बैठकर कुछ देर तक स्वयं को गर्म किया और मंजिल की तरफ बढ़ चला।
रास्ते में ही उसे बाबा आते मिल गए जो शायद उसे ही ढूंढने के लिए घर की तरफ जा रहे थे। दोनों खेत में पहुंचे और मचान पर चढ़ गए। रामा का डर अब कम हो चला था। उसकी बाल बुद्धि अब भी सुनी हुई कहानियों को अपने बालपन और कल्पनाओं की कसौटी पर रगड़कर उनके सच्चे होने का प्रमाण ढूंढ रही थी।