उम्मीदों के साए में पलता रहा मैं,
अपने जख्मों पर मरहम मलता रहा मैं,
जिंदगी गोल राहों पर घुमाती रही मुझे,
और चाहत का हाथ थामकर चलता रहा मैं।
हर चाहत के लिए पतंगे सा जलता रहा मैं,
मुट्ठी भर जीत के लिए मचलता रहा मैं,
हीरे-सी तेज चमक लेकर भी आंखों में ,
हर श्याम को सूरज सा ढलता रहा मैं।
दर्द को खामोशी से कुचलता रहा मैं,
सपनों की सड़कों पर फिसलता रहा मैं,
पत्थर-सा सख्त जिगर लेकर भी,
हर मासूमियत पर बर्फ सा पिघलता रहा मैं।
किसी कोरे कागज-सा गलता रहा मैं
अपने ही नादान दिल को छलता रहा मैं
लेकर पीठ पर दुनिया से जख्म
किसी खुशहाल पेड़ सा फलता रहा मैं।
झूठ की परछाईयों से बहलता रहा मैं,
धुंध के पार की झलक पाने को उछलता रहा मैं,
पाया नहीं जिन्दगी में मैंने कभी कुछ मगर,
न जाने क्यों जमाने को अंधेरे सा खलता रहा मैं।