ज्येष्ठ मास की दोपहर थी। चिलचिलाती धूप में जमीन तवे की
तरह तप रही थी। गर्म लू के थपेड़े शरीर में एक चुभन पैदा कर रहे
थे। सूरज की तपिश से पसीना भी बाहर आने से डरता था। आसमान
में परिंदों का नाम ना था। उस आग बरसाते हुए आसमान के नीचे
रियासतों की पलटनों में कोहराम मचा था। हर तरफ लाशें कटे हुए
पेड़ों की तरह गिर रही थी। लू के चलते परिंदों ने भी दावत उड़ाने
का ख्याल छोड़ दिया था और वे भी चट्टानों पर बैठकर दर्शकों का
किरदार निभा रहे थे। हर हथियार खून का स्वाद जानने को बेकरार था।
घायलों और शहीदों की खोज-खबर लेने वाला कोई ना था। आज कोई
भी शिकार न था, हर तरफ बस शिकारी थे। कहीं जवानी का जोश
था, कहीं सालों का अनुभव । समय के हर पल से निर्दयता झलक
रही थी। हर शिकारी चिलचिलाती धूप में पानी की बजाय रक्त का
प्यासा था। रियासतों के युद्ध हार-जीत के लिए लड़े जाते रहें हैं और
लड़े जाते रहेंगे। मगर इनमें जिन रिश्तों का खून होता है उसका कोई
हिसाब नहीं होता। इसी तरह बेकसूर सैनिकों की रक्त स्याही से लिखे
एक और युद्ध की गाथा इतिहास के पन्नों में गुम हो रही थी।