पूरे दिन बरसकर मेघराज सांस लेने के लिए थम गए थे। अब कीड़े-मकोड़ो के लिए उत्सव का समय था। ढलता हुआ सूरज किसी खुशहाल किसान की तरह सीना फुलाए अपने घर की तरफ एक खूबसूरत गीत गुनगुनाता हुआ बढ़ रहा था। बादल रहने से अंधेरा ज्यादा जल्दी होता हुआ प्रतीत होता था। श्याम के 6 बजे थे। मगर मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। डर लगता था कि भैया झुंझलाकर घर में महाभारत ना शुरू कर दे। दरअसल आज उन्होंने मुझे मेरे दोस्तों के साथ सिनेमा हॉल के बाहर खड़े देख लिया वो भी स्कूल के समय पर। मैं पिछले कई दिनों से स्कूल और ट्युशन दोनों ही जगह नहीं गया था। तभी से दिल का चैन उड़ा हुआ है। उनके घर लौटने से पहले ही घर पंहुचना चाहता था। मगर फिर भी जल्दी कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं होती थी। बड़े भैया के गुस्से से घर में सब वाकिफ हैं। उनका गुस्सा जैसे भगवान परशुराम का गुस्सा। माँ-बावजी भी उनके सामने कुछ नहीं बोलते। इसका कारण यही है कि भैया किसी भी गलत बात पर गुस्सा नहीं होते। मेरे लिए पल-पल हथौड़े के समान था।
रास्ते के पेड़ जैसे हिल-हिलकर मेरा मजाक उड़ा रहे थे। लग रहा था जैसे हर आने-जाने वाले को मेरी करतूत के बारे में पता था और पत्थर से लेकर जानवर तक सब मुझे घूर रहे थे। तभी पीछे से मुझे अपने नाम की पुकार सुनाई दी,फ्बद्री! जरा सुनो।य् मैंने मुड़कर देखा तो मंगल था, मेरा सहपाठी। कई दिन से स्कूल नहीं आया था। उसी की संगत में रहकर मैंने सारी गलत आदतें धारण की थी। उसके साथ रहकर किसी का भी मंगल नहीं हो सकता यह बात स्कूल का हर लड़का जानता था। वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया और हांफते हुए मेरी पीठ पर हाथ मारकर कहा,फ्क्यों रे! आज हॉल से कहां गायब हो गया था। वहां अपने भाई को देखकर डर गया था क्या?य् उसके होंठों पर छाई शैतानी मुस्कान देखकर मैं समझ गया कि इस लड़के में सहानुभूति नाम की कोई चीज नहीं है। मेरे उत्तर का बिना इंतजार करते हुए ही वो इधर-उधर की बातें करने लगा और वापस जाते हुए कहने लगा,फ्आज मैंने शंकर पंडित को तेरे भाई से बात करते हुए देखा था।य् इतना कहकर स्वभावानुसार, मेरी हालत बिना समझे ही मंगल बाद में मिलने के लिए कहकर गांव के बाहर वाले तालाब की तरफ जाने वाली पगडंडी पर भाग गया।
मैंने शंकर पण्डित से 200 रुपये उधार ले रखे थे। भईया औरशंकर के मिलने के परिणाम को सोचकर ही कलेजा मुंह को आ गया। अब तो जैसे मेरे कदम जमीन में गड़ गए थे। कुछ देर के लिए सब कुछ संज्ञा-शून्य हो गया। मन ही मन घर जाकर होने वाली घटनाओं का अवलोकन करने लगा। घर ना जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था।
2 घंटे लगने के बाद भी जैसे आज घर जल्दी पहुंच गया था। बाहर बैठक में बावजी अपनी सांस्कृतिक विद्या के अध्ययन में मग्न थे। इन किताबों को बावजी कई बार घोट कर पी चुके थे फिर भी इन पुरानी किताबों को निचोड़ने में लगे रहते थे। मेरी तरफ देखकर, मात्र सÂाटे को तोड़ने के लिए उन्होंने पूछा,फ्आज आने में इतनी देर कहां लगा दी, दोस्तों के साथ खेलने लगा था क्या?य् और उत्तर की बिना प्रतीक्षा किए वापस साहित्य संसार में गुम हो गये। माँ शायद पड़ोस में गई थी। सामने ही बड़े भैया का कमरा था। साथ ही रसोई थी जिसमें भाभी खाना पकाने की तैयारी कर रही थी।
भैया कमरे में कपड़े बदल रहे थे, आज जल्दी घर आ गये थे। इसका मतलब साफ था कि आज मुझे अच्छा सबक सिखाया जाएगा। मैं नजर बचाकर सीढ़ीयों की तरफ तेजी से बढ़ा मगर मेरी कोशिश को उन्होंने एक बार में ही विफल कर दिया। उन्होंने पुकारकर कहा,फ्बद्री! अंदर आओ। तुमसे बात करनी है।य् ये सुनते ही मेरा गला सूख गया। मैं डर के मारे अपनी जगह जड़ हो गया। उन्होंने दोबारा पुकारा तो मैं घोंघे की चाल चलता हुआ कमरे की तरफ बढ़ा। दरवाजा किसी बड़े दैत्य के मुंह के समान मानों मुझे निगलने के लिए आतुर जान पड़ता था। अंदर मेज पर भैया के मशीन ठीक करने के औजार पड़े थे मानों
दिनभर की मेहनत से थक गए हो। छत का पंखा चूं-चूं करता हुआ घूम रहा था जैसे मजदूर थकने के बाद भी अनमने ढंग से काम कर रहा हो। रोशनी का बल्ब किसी शिकायती बच्चे की तरह लग रहा था
जैसे देखना चाहता हो कि शिकायत करने के बाद आरोपी को क्या सजा दी जाएगी? भैया की आवाज की गर्मी ने मेरे दिल को पलभर में पिघला दिया। अब उन्होंने बोलना शुरू किया। उनके शब्द बाण वर्षा
की तरह मेरी हिम्मत की ढाल को भेदने लगे। सालों पहले घर में घुसा आर्थिक तंगी का भूत मेरे सामने नृत्य करने लगा। पिता की बीमारी और बहन के विवाह के समय लिए कर्ज की कथाएं इतिहास के पन्नों से निकालकर उन्होंने मेरे सामने लहरा दी।
आधे घंटे तक मेरी स्थ्तिि किसी चूहे की तरह थी जो बचने के लिए बिल ढूंढ रहा हो। लेकिन उस समय मैं समुद्र के बीचोंबीच था, जहां दूर-दूर तक राहत की जमीन नहीं दिखती थी। जिस तरह कुम्हार
मिट्टी को पीटता और लोहार लोहे को आकार देने के लिए वार करता है, ठीक वैसे ही अपने शब्दों से छलनी करके, भैया ने मुझे जाने की आज्ञा दी।
बाहर निकला तो सभी बाहर खड़े होकर मुझे घुर रहे थे। मैं नजरें झुकाकर सीढ़ीयों की तरफ बढ़ा। सब लोग फिर से अपने-अपने काम में लग गए। शायद सभी मुझसे सुधार की उम्मीद खो बैठे थे इसलिए किसी ने मुझसे कुछ नहीं कहा।
तभी मेरी 5 साल की भतीजी काशी दौड़ती हुई मेरे पास आई और बोली,फ्काका, क्या हुआ? क्या बावजी ने आपको डांट दिया?य् मैें बिना जवाब दिए ऊपर जाने के लिए मुड़ा मगर तभी काशी हाथ पकड़कर बोली,फ्आपको पैसे चाहिए थे तो मुझसे ले लेते।य् कहते हुए उसने 2 रुपये मेरे हाथ पर रख दिए। उसकी मासूमियत देखकर मैनें मजाक किया,फ्अगर जिंदगी भर मैं तेरा उधार नहीं चुका पाया तो?य् फ्तो समझिये मैंने आपका उधार माफ कर दियाय्, इतना कहकर काशी बच्चों के साथ खेलने के लिए गली में भाग गई। मैं भौंचक्का सा उसे देखता रहा। मासूम बच्ची के त्याग का बोझ उठाने की हिम्मत जैसे मेरे हाथों में बची ही नहीं थी। कई बार बच्चों की मासूमियत हमें बड़ों की डांट से ज्यादा सिखा देती है। मैं अपने कमरे में चला गया, उस उधार की गठरी को उठाए जिसका भार ताजमहल बनवाने वाले शाहजहां के खजाने से भी कहीं ज्यादा था।