विधा– संस्मरण
शीर्षक– मां की मार
दस–बारह बरस की उमर थी मेरी। कक्षा छै या सात में पढ़ता था मैं। मैं रोज स्कूल जाता और घर आकर छोटे भाई को संभालता, साथ ही पिता जी के काम में हाथ बंटाता। घर में खपरा बनाने का काम चल रहा था।
रविवार के दिन सुबह 9 बजे से डीडी नेशनल पर चंद्रकांता सीरियल आता था और मैं तो सब काम छोड़कर उसे देखने जाता था क्योंकि घर में टी व्ही थी नहीं।
मां ने कहा– "मैं और दादा (मेरे पिताजी) माटी सानेंगे और खपरा बनाएंगे और तुम छोटे भाई को संभालना।"
परंतु मेरा मन तो टी व्ही में लगा था। मैं सोच रहा था कि कैसे मां पिताजी की आंखें बचाकर टी व्ही देखने चला जाऊं। जैसे ही मां पिताजी का ध्यान काम में लगा और मैं आंख बचाकर भाग गया।
परंतु मन में डर लग रहा था कि मां मुझे ढूंढते हुए आ गई तो क्या होगा? उस समय मुझे ऐसा लग रहा था कि घर जाता हूं तो सीरियल छूट जायेगा और घर न गया तो बहुत मार पड़ेगी। बस यही सोचता हुआ टी व्ही देख रहा था। पर बार बार आंखें बाहर की ओर देख रही थीं।
एक पल टी व्ही की ओर देखता और एक पल बाहर की ओर। मन में बड़ी घबराहट हो रही थी पर सीरियल छोड़ने का मन नहीं हो रहा था।
तभी अचानक बाहर मां आती हुई दिखी। मेरी तो जान सूख गई।
बड़े सहज भाव से मां मेरे पास आयी और मेरा हाथ पकड़ कर कहा– "बेटा, घर चलो।"
मैं भी एक अपराधी की भांति चुपचाप सर झुकाए उनके साथ चला गया।
घर आकर पहले तो मां ने बाहर लगे बिजली के खंभे से जेवरा (नारियल की रस्सी) से बंधा और फिर दूसरे जेवरा से जब मारना शुरू किया पता ही नही कितने मारे होंगे।
मैं रोता रहा और वो मारती रहीं। साथ में वो भी रोती जाती। किसी की हिम्मत नही हुई की उनको रोके।
मेरी पिटाई के बाद मुझे वहीं बंधा हुआ छोड़ दिया और सब से कह दिया– " कोई इसे यहां से नहीं खोलेगा। पूरे दिन ऐसा ही बंधा रहेगा।"
उस दिन न तो मैने कुछ खाया था और न ही मुझे किसी ने कुछ खाने को दिया था।
दोपहर तक मां पिताजी अपना काम करते रहे और मैं चुपचाप खंभे से बंधा रहा।
दोपहर के बाद मां मेरे पास आयी और मुझे खंभे से खोलकर मेरा हाथ पकड़कर मुझे स्नानघर ले गईं। मुझे स्नान कराकर खाना खिलाया और समझाया कि बेटा मां पिताजी की बात मानना चाहिए।। आज भी मैं उनकी बात को याद रखता हूं।
मां की मार में भी असीम प्यार छिपा होता है।
महेन्द्र "अटकलपच्चू" ललितपुर (उ. प्र.)
मो. +918858899720 (whatsapp)
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