स्मृतियां
मुझे याद है आज भी वो दिन जिस दिन मेरे पिताजी ने बुरी बुरी गलियां देकर घर से निकल जाने को कहा था।
बेरोजगार था काम धाम करता नही था। ऊपर से पत्नी और दो बच्चों की जबाबदारी।
मन बहुत बैचेन था । सोच रहा था कि क्या करूं ?
सोचा कही बाहर जाकर मजदूरी करके अपना और अपने बच्चों का पेट पालूंगा। पर कहां जाऊं ?
बड़े असमंजस में था मेरा मन। समझ ही नही आ रहा था कि आखिर क्या हल होगा इस समस्या का।
जेब में फूटी कौड़ी भी नही थी और पिताजी ने कह दिया था जो करना हो करो मैं कुछ नहीं जानता।
पर परमेश्वर को कुछ और ही मंजूर था । उसके आगे किसकी चलती है? कहते है ऊपर वाला जो करे सो सब होय। हम मानव की क्या बिसात ?
पड़ोसी ने बड़ी मुश्किल से 200 रुपए दिए । वो भी एक हफ्ते में वापस करने का पक्का वादा किया जब।
आखिरकार मैं पत्नी और बच्चों को छोड़कर घर से निकल ही पड़ा। शाम का समय था घर से एक फटा पुराना बैग जिसमे एक जोड़ी पुराने कपड़े और चार रोटी कपड़े की पोटली में थे। गांव से 8 किलोमीटर पैदल चलकर मुख्य सड़क पर आया । सोचा था कि कोई वाहन मिल जायेगा तो कही चला जाऊंगा। बड़ी मुश्किल से एक ट्रक मिला उसमे बैठकर सागर रात 11 बजे पहुंचा।
जैसे तैसे रात सागर में काटी , सुबह 6 बजे की बस पकड़ कर सीधा अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा।
आज 12 वर्ष हो गए मुड़कर नही देखा । बस आगे ही बढ़ता जा रहा हूं । माता पिता और पत्नी बच्चों का साथ भी है और जीवन भी आनंद से परिपूर्ण।।
आज जब उस घटना को याद करता हूं तो समझ आता है की माता पिता की डांट बच्चों के लिए बहुत ही फायदे मंद होती है। जीवन संवार देती है। जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर देती है। आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती है।
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