स्मृतियां
बरसात का महीना था । शायद जुलाई अगस्त का महीना होगा । माता जी ने कुछ रोटियां बनाकर कपड़े की पोटली में बांध कर रख दीं । बोलीं– कमरे पर पहुंच कर रोटी बनाना नहीं पड़ेगी । पहुंच कर रोटी खा लेना और सो जाना और सुबह स्कूल जाना ।
घर से पैदल ही छोटे भाई के साथ निकल पड़ा । आसमान में बादल घिरे हुए थे । बोरी की छपरी बनाकर ओड रखी थी । 15 किलोमीटर पैदल चलकर रहली पहुंचा, सुनार नदी का पूर चढ़ा हुआ था । नाव से पार जाना था । नाव किनारे लगी थी, और पार उतरने वाले 200 लोगों से भी अधिक साथ ही उनका सामान ।
जैसे–तैसे नाव में चढ़ तो गए पर लोगों और समान के कारण केवल खड़े होने को ही जगह मिली ।
बड़ी मुश्किल से नाव पानी में ले गए।
नदी की धार तेज थी , नाव में भर भी अधिक।
बीच धार में नाव डगमगाने लगी। लोग चिल्लाने लगे ।
हम दोनों भाई सहमे चुपचाप खड़े थे। मैं सोच रहा था कि पता नहीं कि आज बचूँगा की नही।
नाव खेने वाले, नाव को डगमगाते देख, पतवार को एक ओर फेककर पानी में छलांग लगाकर भाग गए। लोग जोर जोर से चिल्ला रहे थे । मेरा तो गला सूख गया था।
नाव पानी की धार के साथ बहने लगी । नदी के मोड़ में जब नाव किनारे पहुंची तो लोग एक साथ किनारे की ओर भागे और नाव पलटी तो नही पर तिरछी हो गई। और लोग पानी में गिर गए। साथ में मैं और मेरा भाई भी।
मैं पानी के भीतर पहुंच गया। हाथ पांव मारे पर क्या ? कुछ नही!
अचानक नाव का किनारा हाथ से छू गया और मैने उसे पकड़ लिया , तब तक नाव सीधी हो गई।
मैं सोच रहा था कि नाव के साथ ही बहता जाऊंगा।
उसी समय भाई का ध्यान आया , नजर घुमाकर चारों तरफ़ देखा पर भाई नहीं दिखा। मन में अजीब सा खयाल आया । जब नीचे की ओर देखा तो एक आदमी नाव में पड़ा था और लोग उसके ऊपर चढ़ते हुए अपनी जान बचाने में लगे हुए थे।
मैने भी अपनी जान बचाने के चक्कर में उस आदमी की कोई मदद तो नही की लेकिन उसके ऊपर पैर नही पड़ने दिया और किनारा पास देखकर मैं पानी में कूद गया। सोच रहा था कि किनारा पास है जल्दी से तैरकर नदी से बाहर निकल जाऊंगा। पर शायद मेरे साथ तो कुछ और ही होना तय था। जैसे ही मैं पानी में कूंदा, दो तीन लोग मेरे ही ऊपर चढ़ पड़े और मैं किनारे की बजाय गहरे पानी में चला गया। मन ही मन सोच रहा था कि शायद ही आज बच पाऊंगा।
मैं पानी की धारा के साथ बहता चला गया और बीच नदी में आ गया। कहते है डूबते को तिनके का सहारा बहुत होता है और हुआ भी मेरे साथ ऐसा ही। पानी के भीतर ही एक छोटा सा पत्थर मेरे हाथ में लग गया और मैं बहने से रुक गया। जब पानी में खड़ा हुआ तो देखा कि मेरे चारों तरफ पानी ही पानी ।
वहीं खड़े होकर मैंने अपनी नजर घुमाकर अपने भाई को देखा पर वह कहीं नहीं दिखा और मेरे मन में खयाल आया की शायद वो डूब कर मर तो नही गया।
मैं ये सोच ही रहा था कि नदी के बाहर किनारे पर से मेरे भाई ने मुझे पुकारा। मन को बड़ा संतोष मिला। मन बहुत प्रसन्न हुआ भाई को देखकर।
नदी के बाहर आकर भाई से मिला और कमरे पर आ गया।
उस घटना में कोई हताहत तो नही हुआ लेकिन रेडियो समाचार सुनकर मेरे माता पिता का हाल तो ऐसा हुआ मानो उन्हें काटो तो खून नहीं।
आधी रात को भरी बरसात में मेरे पिता जी हम से मिलने घर से निकल पड़े। और क्यों न निकलते? किसी ने उनसे कह दिया था की इस गांव के दोनों लड़के पानी में डूबकर मर गए हैं।
सुबह 4 बजे मेरे पिताजी कमरे पर आ गए और हम दोनों को देखकर गले लगा कर रो पड़े।
आज भी उस घटना को जब याद करता हूं तो परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं। क्योंकि पवित्र शास्त्र में लिखा है कि प्रभु मृत्यु से बचाता है।
महेन्द्र ‘अटकलपच्चू’
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