कभी कभी समय अपने साथी से कुछ दूरी बनाने के संकेत देने लगता है । बेहद प्रिय और जान से ज्यादा प्यार करने वालो से वैचारिक मतभेद होने लगते है । या कभी कभी हमको अपने प्रिय जनो की बात भी अच्छी नहीं लगने लगती है ।
ये क्यों होता है इसके पीछे के वजह क्या है ? मन इसको खोजने की कोशिश भी करता है तो भी नही खोज पाता ।
बात उन दिनों की है जब मैं अपने उम्र के उस मुकाम पे आ चुका था जब मुझे मेरे बच्चो के शादी करने का अवसर मिलने वाला था । ये "अवसर" शब्द को प्रयोग में लाना इस लिए भी जरूरी था क्योंकि ये अनायास होने वाला था ।
बिटिया ने MBA की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही एक अच्छा रिश्ता हमको मिल गया जिसे हमने सब तरह से जांच परख के मंजूर करना ही उचित समझा ।
अब समय पंख लगा के उड़ने लगा था । कब , कैसे दिन निकल जाते है पता ही नही चल पाया । मुझे पता नही क्यों बार बार ऐसा लग था की शायद सब कुछ आसानी से निपट जायेगा । लेकिन शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था ।
एक्चुअली हुवा कुछ ऐसा की शादी की खरीदारी के वक्त डिसाइड हुवा की हम कुछ बजट बना के अपनी खरीदारी करेंगे लेकिन हम सब को मालूम था की बजट जो भी हो लेकिन कुछ न कुछ ऊपर नीचे हो ही जाता है । मानसिक रूप से तैयार सभी थे लेकिन फिर भी अपनी हदों को बांधने के लिए"बजट" नामक एक शब्द को सभी ने जहन में बिठा रखा था ।
बात आई की खरीदने वाले सारे समान को सूचीबद्ध किया जाए ताकि आसानी रहे खरीदने में । कुछ बातों के बाद पता चला की हम खरीदारी से पहले लोकल मार्किट का सर्वे कर चुके थे । इसलिए ये डिसाइड हुवा की हम सब माल जयपुर से ही खरीद लेंगे क्यूंकि उधर माल भी अपनी पसंद का मिल जायेगा और अपने बजट में भी मिल जायेगा ।
इस बीच अचानक से हमको फिर से लोकल मार्किट में जाने का मौका मिल गया । बिटिया को कुछ ड्रेस पसंद भी आ गई , लेकिन उसकी मर्जी थी की वो ड्रेस अपने ससुराल वालों को दिखा के उनको भी पसंद करवाई जाए , उसी मुताबिक दुकान से ही वीडियो कॉल किया गया और ऑन लाइन उनको पसंद करवाया गया । थोड़ी न नकुर के बाद हामी हो गई ।
ड्रेस घर लाई गई और शाम के वक्त ग्रुप वीडियो कॉल में एक बार फिर ससुराल वालों को दिखा दिया गया उस ग्रुप काल में तीनों ननद ने थोड़ी देर तक आंशिक सहमति दिखाई और फिर ये बोल दिया की आप इस ड्रेस को रख लो लेकिन किसी विशेष अवसर पे मत पहनना क्युकी उसके लिए अलग से ड्रेस तुमको दिला दी जाएगी । हम सब को समझ ही नही आया की हमने जो किया वो अच्छा किया या खराब । क्या हमको पहले ही उनकी मंशा को समझना चाहिए था ? क्या बिटिया को कुछ दिलाने के लिए किसी की राय की जरूरत थी भी या नही ? क्यों कभी किसी को तवज्जू देना अच्छा नही रहता ? या फिर जो हुवा क्या वही सही था ?
कई सारे सवाल दिमाग में आए और आ के चले गए । वक्त जो भाग रहा था । लेकिन मुझे पिता होते , एक बात जल्दी समझ आ गई की बिटिया को ससुराल जाना है तो उसके ससुराल वालो की पसंद के कपड़े लेने चाहिए ,फायदा उसी में है ।
इसलिए मैने जयपुर जाने से मना कर दिया और तय किया की बेटी और मां दोनो ही जाके जयपुर से अपने हिसाब से खरीदारी कर लेंगे । चूंकि ये पहले ए बात हो चुकी थी की बजट कैसा रहेगा तो ज्यादा कुछ समझने समझाने का था नही बाकी ।
अब दिक्कत ये थी की मां की जिद थी की बेटी की शादी की खरीदारी है , पिताजी को साथ चलना चाहिए उनको अपनी राय देनी चाहिए , उनको साथ जाने से कुछ स्लेक्ट करने में आसानी होगी और थोड़ा बहुत अगर पैसे वगैरा में बात चीत कर पाए तो अच्छा रहेगा । लेकिन मेरी समस्या ये थी की एक तो प्राइवेट जॉब, दूसरी आगे की छुट्टियां को ले कर बनाई जाने वाला प्लान भी दिमाग में था । और सबसे बड़ी बात की मुझे वाकई में कुछ पसंद करना नही था , दोनो मां बेटी पूर्ण रूप से सक्षम थी अपने समान को खरीदने में ।
ऐसे में मैने उनके साथ जाने का प्लान ड्रॉप कर दिया । जब तक ये भी अच्छे से पता चल चुका था की जो भी पसंद होगी उसमे ससुराल वालो की मंजूरी बहुत रोल अदा करेगी ।
तो कुल मिला के अपने इस निर्णय पे मैं अडिग रहा । मुझे सिर्फ सवाल यही मन में आ रहा था की क्या ये मैने अच्छा किया , क्या मैं अपने आप को मेरी पत्नी की जगह रख के देख सकता था ? क्या उसकी जगह मैं अपनेआप को रखता तो मेरे दिमाग में ये खयाल नही आता की बेटी की शादी रोज रोज तो होती नही तो क्यों बेटी की शादी की महत्वपूर्ण अवसर पे मैं उनके साथ नही था ?
लाखो प्रश्न मेरे दिमाग में घूम रहे थे , वक्त शायद सबका उत्तर दे भी दे , लेकिन क्या वो वक्त वापस आएगा ?