इस गाँव में खोया है मेरे बचपन का खजाना, तुम पूंछते हो ऐसे गाँव में क्या रखा है । होते ही सुबह अम्मा कहतीं थी आ दिखा दूँ, बकरी के छोटे बच्चे से तुझको आ मिला दूँ । उस भोले भाले बच्चे को गोदी मैं बिठा लूँ , उसके लिए बाजार से घण्टी को मैं मँगा लूँ । तुम पूंछते हो ऐसे बचपन में क्या रखा है । इस गाँव ... कहतीं थी दादी जाओ भैया के साथ पढ़ने । तब मेरे कपड़े गन्दे न जाने के बहाने । तब रूठ - रूठ के हम छिपते थे नाद पीछे । मम्मी मुझे बुलाती आ जाओ मेरे बच्चे । मैं तुझको आज दूंगी इतने सारे सिक्के । तुम पूँछते हो ऐसे सिक्कों में क्या रखा है । इस गाँव ... होते ही शाम दौड़े जाते थे खेत पर हम । खेतों से तोड़ गन्ने खाते थे शौक से हम । चलती हुई बोरिंग से फिर हौदी में नहाना । फिर इधर - उधर दौड़ के चंदा छुटकी संग जाना। खेलूँ में छुपन-छुपाई फिर निमिया पे चढ़ जाना । फिर गुल्ली डंडा खेल के चुपके से घर पे आना । तुम पूँछते हो ऐसे खेलों में क्या रखा है। इस गाँव ... भोला दीदी जाती बाजार मुझको जाना। टूटी है मेरी चप्पल जुड़बाने का बहाना । फिर उछल कूद करके भगते थे मेड़ पर हम । बरहा पे धम्म से गिरना ,फिर भीगे - भीगे चलना । भैया का फिर उठाना ,अंगुली पकड़ चलाना । तुम पूँछते हो उनकी अंगुली में क्या रखा है । इस गाँव .. शीलू दीदी से लड़ना , अम्मा से मार खाना । चुपके से फिर सिसकना, अम्मा से मुँह फुलाना । चाचा का फिर मनाना और कन्धे पे बिठाना। तुम पूंछते हो उनके कन्धों में क्या रखा है। इस गाँब में खोया है मेरे बचपन का खजाना । तुम पूँछते हो ऐसे गाँव में क्या रखा है। सुनीता कुमारी यादव