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महक

31 दिसम्बर 2023

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अब सिर्फ पन्द्रह मिनट शेष रह गया था रेलगाड़ी के आने में अतः मैं अपना सामान संभालता हुआ स्टेशन की तरफ चल पड़ा। जनवरी का महीना होने के कारण शीत ऋतु अपने समग्र यौवन के साथ प्रकृति में संलग्न होकर हर एक वस्तु को शीतल कर रही थी और पहने हुए कपड़े भी ठंड को रोक पाने में जैसे ब्यर्थ साबित हो रहे थे। पहाड़ों के तरफ से आती ठंडी बर्फीली हवा गलन को और बढ़ाने में मदद दे रही थी।मैं सिकुड़ता हुआ स्टेशन के अंदर घुस गया तथा बैठने के लिए जगह तलाश करने लगा। पास मे ही एक टेबल खाली पड़ा था मैं उसी पर बैठ गया। यात्रा के सीजन के दौरान अथवा त्यौहारों पर हजारों आदमियों की भीड़ से खचाखच भरा रहने वाला स्टेशन इस समय लगभग खाली पड़ा हुआ था। कुछ दुकानदार, रेलवे के कर्मचारी, कुछ यात्री कुल मिलाकर बहुत कम लोग मौजूद थे। शायद हर कोई इस कंपकंपाती ठंड में लंबी यात्रा की कष्टप्रद स्थिति से गुजरना नहीं चाहता होगा जो शारिरिक व मानसिक दोनों ही थी। उपर से कुहरा इतना घना था कि थोड़ी दूर खड़ा आदमी भी न दिखाई पड़े। चाय चाय की आवाज लगाता हुआ चायवाला बगल से गुजरा। मैंने एक कप चाय पी लेने के बारे मे सोचा जो शरीर को तो नहीं पर मन को थोड़ा राहत देता। उसे बुलाकर चाय ली और बैठ कर पीने लगा।

स्टेशन के अंदर लगे लाउडस्पीकर से रेलगाड़ी के आने की घोषणा होने लगी। चाय खत्म होते होते गाड़ी प्लेटफार्म पर आ कर खड़ी हो गई। मैंने बैग को कंधे पर डाला, खाली गिलास कूड़ेदान में फेंक कर अपने आरक्षित सीट वाले डिब्बे में घुस गया। मेरे अनुमान के अनुरूप ही गाड़ी के अन्दर भी बहुत कम यात्री थे। मेरे आगे और पीछे की सीटें खाली थीं। कुछ आगे जाकर दो चार लोग बैठे थे जो कम्बल और शाल ओढ़े हुए अपने अपने स्थानों पर दुबके हुए से थे। बाहर की अपेक्षा अंदर और भी ज्यादे ठंड थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ठंडा करनेवाला यंत्र चालू कर दिया गया हो जिसके फलस्वरूप पूरा वातावरण जम रहा हो। मैंने सामान को बेतकल्लुफी से ऊपर वाले सीट पर फेंक कर नीचे वाली सीट पर बैठ गया। पांच मिनट बाद गाड़ी ने हार्न बजाया और खुलकर धीरे धीरे सरकने लगी। रात का साढ़े आठ ही बजा  था । इतनी जल्दी सोना उचित न सोचकर मैं उठकर दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ। भूख थी जो घर जाने की खुशी में इस वक्त न जाने कहां गायब थी। गाड़ी अब अपनी रफ्तार बढ़ाने लगी थी।

कुछ ही समय बीते होंगे गाड़ी के चले हुए जब वो अचानक ही प्रकट हुई। दरवाजे के पास मैं चलती हुई रेलगाड़ी से दिखते हुए गुजरते पेंड़, खेत, मैदान तथा मकानों के दृश्य जिनको गुजरता देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है कुछ ऐसा खोया हुआ था कि उसके आने का एहसास ही न हुआ। बासी हो चुके सस्ते इत्र एवं सौंदर्य प्रसाधन के कुछ अन्य उत्पादों की बासी महक एकाएक ही लगी । तब मेरा ध्यान उसकी तरफ गया। कोई सत्ताइस अट्ठाईस साल की शादीशुदा औरत थी जिसने अपने शादीशुदा होने वाली बात को सूट सलवार व श्रृंगार से छिपाने की एक बेकार और असफल कोशिश कर रखी थी। ठिगने कद की, गोरा चेहरा पर आंखें जो शायद कमजोरी की वजह से धंस गई थीं। उन्हीं आंखों से निरंतर वो मुझे घूरे जा रही थी । प्रार्थना, आमंत्रण अथवा याचना पता नहीं ऐसा क्या था उन आंखों में जिसे नाम देना बेमानी साबित होता। उस पर भी उसकी खामोशी जिसके कारण मैं आकर्षित हुआ और उसके पास जाकर खड़ा हो गया।

" कहां जाओगे " ?

उसने पहुंचते ही सीधा मुझसे प्रश्न दाग दिया। दरअसल मुझे उससे इस तरह से प्रश्न पूछने की उम्मीद न थी इसलिए अचकचा गया। बहुत सी किताबों में मैंने पढ़ा हुआ था कि लंबी दूरी की रेलगाड़ियों में कई बदचलन औरतें शरीफ औरत  के भेष में पैसा कमाने के उद्देश्य से गलत कामों को अंजाम देती हैं छिपे रूप में लेकिन इस महिला में जो मेरे सामने खड़ी थी और जिसनें रानी रंग का सूट सलवार व हाथों में उसी रंग की चूडिय़ां पहन रखी थी ऐसा कुछ नजर नहीं आया।

" मैं तो वाराणसी तक जाउंगा "
मैंने उसके सवाल का जवाब दिया। बातों का क्रम टूट न जाय सो मैंने भी अपनी तरफ से पूछ लिया

" आप कहाँ तक जायेंगी " ?।

" जी, मुरादाबाद " 
इतना कहकर वो मेरे पास आकर खड़ी हो गई। बातें होने लगीं। उसने अपना नाम शालिनी बताया। धीमी आवाज में वो मुझसे बोली की ग्यारह बजे यहीं पर मिलना और बोलकर दूसरे डिब्बे में जाने लगी। मैं उसके पीछे जाना चाहता था परंतु रुक गया। उसके इस प्रकार बुलाने से मैं सोच में पड़ गया। कहीं लूटने वाली तो नहीं है। किताबों में पढ़ी बात अब सच लगने लगी। इंतजार के अलावा दूसरा रास्ता भी न था। पीछा करने से लोग शक करते। मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कोई स्टेशन आ रहा था। गाड़ी की चाल घटने लगी। छोटा सा स्टेशन था। गाड़ी दो मिनट रुक कर पुनः चल पड़ी। शालिनी के बारे में सोचते सोचते समय का अंदाजा ही न लगा। जब खाने वाला आया तब घड़ी देखा। दस बज चुके थे। कुहरा अंधेरी रात के साथ मिलकर और भी घना हो चला। एक घंटा और बीता फिर पता नहीं किस प्रेरणा के वशीभूत होकर उससे मिलने को उद्यत मैं दरवाज़े के पास चला गया।
                                              सस्ते इत्र की उस बासी महक ने उसके आने का आभास दे दिया। वो ठीक अपने बताये समय पर आ गई थी। रात काफी गहरी हो चली थी। यात्री अब अपनी अपनी बत्तियां बुझा सोने का उपक्रम करने लगे। मेरा ध्यान उस वक्त सिर्फ उसी के ऊपर केन्द्रित था। वो शौचालय के पास खड़ी थी। आंखें लगातार मुझे घूरती हुईं। इस पल उन आंखों में कुछ और ही था। एक अश्लील इशारा साथ साथ दबी आंख से संकेत संग अंदर आने व घिनौना काम करने के लिए। मैं भलीभांति उन इशारों का अर्थ समझ रहा था किंतु निर्णय की स्थिति में न था। मेरी आत्मा और मन के मध्य एक अंतर्द्वंद छिड़ गया। आत्मा की पुकार के पीछे सैकड़ों मील दूर अपना परिवार और राह निहारती धर्मपत्नी का चेहरा दिखाई देता परन्तु जब मन हावी होता तो आत्मा की पुकार दब जाती। जिस्मानी भूख की तड़प जो शायद हर इंसान को प्रकृति प्रदत्त है जाग उठती। दोनों प्रतिद्वंद्वी अपनी प्रतिद्वंदिता का अनोखा प्रदर्शन पेश कर रहे थे।
                                                            आखिरकार मन विजयी हो गया। उन नजरों के सम्मोहन जाल में फंसकर मेरे कदम उसकी ओर बढ़ गए। कुछ क्षणों के पश्चात हम दोनों शौचालय के छोटे से बंद कमरे में बाहर की दुनिया से अलग हो कैद थे। भीतर पहुंचते ही उसने बाहों का हार मेरे गले में डाल दिया। तभी उसके बदन से विशेष किस्म की गंध मेरे नथुनों से आ टकरायी। उसमें सुगंध भी था व दुर्गंध भी। ना जाने कैसे मेरे विचारों ने पलटा खाया। क्या मेरा संस्कार इतना गिर चुका था। क्या मैं अपने होशोहवास मे नहीं था या कि शालिनी ने कोई जादू कर दिया था मेरे ऊपर। मन अध्यात्म के सघन अंतराल में डूब गया । आत्मा की आवाज पुनः मुखर हुई। वासना की लहर जो उतरी थी रुह में अब अपना असर खोने लगी।
शायद उसे धक्का दिया था मैंने जिसका पता तब लगा जब चेतना लौटी। मेरा मन विस्मृत हुआ था कुछ पल के लिए पर अचेतन मन के वापस आते ही सजग हो उठा। उसने वाश बेसिन का सहारा लेकर अपने आपको गिरने से बचा लिया। उसकी आंखों में आश्चर्य के डोरे मैं साफ देख रहा था। वो कुछ सहमी सी लगी। मेरा दम अब वहां घुटने लगा। मैं बाहर निकलने को मुड़ा और जैसे ही दरवाजे की ओर अपना हाथ बढ़ाया शालिनी ने ढिठाई से मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया व बोली

" पैसे तो देते जाओ "।

" किस बात के पैसे "
मैंने प्रश्न किया पर उत्तर स्वयं ही मेरे सामने हाजिर हो गया। अवैध कामों में भी एक नियम होता है। उसी नियम के तहत ऐसी महिलाओं के साथ आ जाने पर कुछ न करने के बावजूद भी पैसे का भुगतान जरूरी हो जाता है। ज्यादा माथापच्ची न करते हुए सौ रुपये का नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। उसने चुपचाप वो नोट रख लिया। अब मैं एक सेकंड भी वहां रूकना असंभव पा रहा था। पैरों में कम्पन बेहिसाब जारी था। दरवाजा खोलकर बिना उसे देखे अपनी सीट पर आकर बैठ गया। सवालों की विस्तृत श्रृंखला अंदर ही अंदर कचोटने लगी। वो क्यूँ करती होगी ऐसा। उसकी अपनी मर्जी होगी अथवा कोई मजबूरी। अन्य भी कई सारे सवाल जिसके बारे में उससे जान लेना मैंने आवश्यक नहीं समझा।
अपने अनुभव के आधार पर इतना ही समझ पाया था कि इस किस्म के लोग भले ही महंगे शौक या अय्याशियों को पूरा करने के लिए वेश्यावृत्ति करतीं हों लेकिन पूछने पर एक दुःख भरी करुणा जनक गाथा ही सुनाती हैं। उसके ख्याल से अब मुझे घिन सी हो रही थी। हल्की फुल्की नींद आनी शुरू हो गई थी। हठपूर्वक उसे अपने दिमाग से निकाल फेंक सोने के लिए लेटने लगा कि वो फिर से आकर खड़ी हो गई व बिना मेरी प्रतिक्रिया जाने ही सामने वाली सीट पर बैठ भी गई। मुझे बहुत ही गुस्सा आया किंतु जाहिर न होने दिया। हिकारत भरी दृष्टि से देखा उसकी तरफ। उसका सामीप्य असह्य हो रहा था। मैं जल्द से जल्द उससे पीछा छुड़ाना चाहता था।उसकी आंखें अभी भी मुझे घूर रहीं थीं परन्तु इस समय उनमे  कोई भाव नहीं था। मैंने सोचा की थोड़ा सा उसके बारे में जान ही लूं। इससे झूठी सहानुभूति के दिखावे का ढोंग भी पूरा हो जाता व फर्ज अदायगी भी हो जाती। सबसे बड़ी बात उसे इसी बहाने टरका देता जो मेरी दिली तमन्ना थी। सीधे सीधे कुछ कहता तो शायद उसे बुरा लग सकता था इसलिए उसके आत्मसम्मान का ख्याल रखते हुए बातों को गोलमाल करते हुए बोला

" आप तो देखने में शरीफ और पढ़ी लिखी दिखाई देती हो। फिर ये सब क्यों करती हो " ।

वो थोड़ा असहज हुई। मेरे सवाल से। मैंने महसूस किया उसके माथे पर सिलवट पड़ गए थे। चेहरे पर कई तरह के भाव आये और चले गए। 

" तो क्या करती, हवस के भेड़ियों से मुफ्त में अपनी देह नुचवाने से यहीं धंधा ठीक लगा। अच्छी खासी कमाई हो जाती है। वैसे वो भेड़िये यहां भी हैं पर रुपये मिलते हैं। कुछ लोग बिना कुछ करे धरे भी रुपये दे देते हैं।"

कहकर वो चुप हो गई। एकाएक मेरी नजरें उससे जा टकराईं। अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी होने लगी। जैसे सरेराह भरे बाजार में मुझे नंगा कर दिया गया हो। मैं उस क्षण को मन ही मन कोस रहा था जब उसके साथ अंदर गया। खुद की फजीहत होते देख कर वार्तालाप का रास्ता बदला

" ऐसी कौन सी वजह थी की आपको इस दलदल में आना पड़ा। "
क्रोध की एक छाया उसके चेहरे पर प्रकट हुई। वो तिलमिला उठी। 

" क्या करेंगे आप जानकर "

इतना बोलकर वो उठ खड़ी हुई और जाने लगी। यहीं तो मैं चाहता था। परन्तु उसके इस प्रकार के स्पष्ट व बेबाक बातचीत नें अब शालिनी के व्यक्तित्व की ओर मुझे आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया था। अबकी मैंने ही उसका हाथ पकड़कर रोका। शुक्र है उसने बुरा नहीं माना। वरना वो जरा सा भी हो हल्ला मचा देती तो मेरे लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती। खैर अनुनय विनय करके फिर से उसे बैठा लिया। इस बार वो बगल में बैठी। काफी देर तक उसके बारे में जानने का प्रयास करता रहा। वो टालमटोल करती रही। मैं भी मंजा हुआ खिलाड़ी था। काफी मान मनौव्वल के पश्चात आखिरकार उसे अपनी बात मानने को राजी कर ही लिया। वो स्थिरचित्त हुई। फिर आहिस्ता आहिस्ता अपने अतीत को परत दर परत खोलना शुरू किया।
                                                    शालिनी एक सभ्य व प्रतिष्ठित हिन्दू परिवार से ताल्लुक रखती थी। पढ़ने लिखने में हमेशा अव्वल रहती। उसके गांव के बाहर आठ दस घर मुसलमान भी बसे थे। उन्हीं घरों में से एक घर का लड़का शोएब था। जो शालिनी का सहपाठी था। वो किसी न किसी बहाने से शालिनी के आसपास मंडराया करता। बात करने का मौका ढूंढ़ता रहता। अवसर मिलते ही मीठी मीठी बातें करता। शालिनी की खूब तारीफ किया करता था। पर शालिनी इन सब पर विशेष ध्यान नहीं देती। लोग कहते हैं न किसी भी क्रियाकलाप की निरंतर पुनरावृत्ति होने लगे तो असर मनुष्य के ऊपर पड़ ही जाता है। स्त्री की सबसे बड़ी कमजोरी है उसकी तारीफ। क्रमशः उनके मध्य नजदीकियां बढ़ने लगी। प्रेम रुपी मधुर संबंध का बीज दोनों के हृदयस्थल में रोपित हो चुका था जो धीरे धीरे अंकुरित होने लगा। प्यार भरी बातें होने लगी लुक छिप कर। शोएब बहुत कुछ कहना चाहता शालिनी से। अवसर न मिलता उसे एकांत में कहने के लिए। यहीं हाल शालिनी का भी था। वह भी उससे इजहार करना चाहती किन्तु घरवालों के डर से चुप रह जाती। लेकिन दिल में हलचल मच चुकी थी। 
एक दिन गन्ने के खेत के पास सुनसान देखकर शोएब ने शालिनी का हाथ पकड़ कर रोक लिया। 

" छोड़ो मुझे, कोई देख लेगा तो "
शालिनी नें विरोध के स्वर में कहा। 

" मुझे किसी का डर नहीं है। मैं आज तुमसे कुछ कहना चाहता हूं"   
शोएब बोला। 

" क्या है, बोलो "

" मैं तुमसे प्यार करता हूं " 
शोएब का स्वर बिल्कुल सपाट था। 

" धत्त "
इतना कहकर शालिनी शरमा गई और अपना हाथ छुड़ाकर चली गई पर उस दिन के बाद से उसकी दुनियां बदलनी शुरू हो गई। चोरी ज्यादा समय तक छिपती नहीं है। समाज में तथा गांव में उनके ऊपर उंगली उठने लगी। तरह तरह की चर्चाएं होतीं उन दोनों को लेकर। जब घरवालों को इस बात का पता चला तो शालिनी के बाप ने एक दिन बहुत मारा था उसको। डंडे व लात घूंसे से खूब पीटा। शोएब से मिलने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया शालिनी के ऊपर।
                        उसे अपने पिटने का उतना दुख नहीं हुआ जितना शोएब से न मिल पाने का। वो उसके बगैर बेचैन रहने लगी। भूख प्यास सब मर गई थी। तब एक रात मौका देखकर दोनों घर से भाग निकले। समाज एवं परिवार से द्रोह करके। शालिनी को यकीन था कि वो शोएब के साथ अपने सब ख्वाब पूरे कर लेगी। जो उसने देख रखे थे। किंतु यहां आकर कुछ ही महीनों में उसे एहसास होने लगा की उसने यहाँ आ कर बहुत भारी भूल कर दी। शोएब का रवैया अब उसके प्रति हौले हौले बदलने लगा। शाम को नौकरी करके आता तो उसके कदम डगमगा रहे होते। घर में घुसते ही देशी शराब का एक तेज भभका पूरे कमरे में फैल जाता। जब शालिनी ने उसका पीछा करना चालू किया तब पता चला कि शोएब शराब पीता है। जुआ खेलता है। और तो और कोठों पर जाने का चस्का भी है उसे। ये सब जानकर शालिनी के पैरों तले जमीन खिसक गई। सारे सपने जो उसने संजोए थे रेत के महल की भांति धराशायी हो गए। शोएब रोज शाम को दारू पीकर आता व शालिनी को मारपीट कर खाना खा सो जाता। शालिनी रात भर जाग जाग कर रोती रहती। अपनी भूल पर पछताती। दो एक साल ऐसे ही चलता रहा फिर शोएब ने काम करने जाना भी बन्द कर दिया। दारू पीने को पैसे न होते तो वो शालिनी को खूब मारता तथा विवश करता की वो कहीं से भी पैसे कमाकर लाये। जब ये सब एकदम असहनीय हो गया तो शालिनी ने मजबूर होकर कठोर कदम उठा लिया और रेलगाड़ियों में घूमने वाली वेश्या बन गई।

" तब से ऐसे ही चल रहा है "।
वो अतीत से निकल कर वर्तमान में पुनः लौटी। उसकी आंखों के पोर गीले थे। मेरी जुबान सम्पूर्ण रुप से खामोश हो गई थी। कोई शब्द ही नहीं था मेरे पास की कुछ बोल सकूं। सहानुभूति जरूर थी उसके प्रति लेकिन मैं चाहकर भी प्रकट न कर सकता था। गाड़ी की रफ्तार फिर से मद्धिम पड़ने लगी।

" अच्छा बाबूजी, मेरा स्टेशन आ गया। चलती हूं "

कहते हुए वो एक झटके से उठ खड़ी हुई। गाड़ी के रुक जाने पर वो उतर गई। मैं स्टेशन पर लगे बल्बों के प्रकाश में उसे साफ देख रहा था। हवा चल रही थी जिसके कारण उसका दुपट्टा उड़ रहा था। वो उड़ते हुए दुपट्टे को पुरजोर वश में करते हुए चली जा रही थी। मैं हतप्रभ सा उसे देखता रहा। सस्ते इत्र की वो बासी महक अब भी आ रही थी। धीरे धीरे हल्की होती होती वो महक हवा में विलीन हो गई।
                        
                                                              समाप्त...

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