मौत,
एक ऐसा नाम जिसे सुनकर देंह कांप उठे । वो विधि का अटल विधान है। कुछ मौतें ऐसी होती हैं जिसे देखकर लोग भगवान से यहीं दुआ करते हैं कि इस प्रकार की मृत्यु किसी की न हो। इसी तरह की एक मौत मेरी आंखों के सामने हुई।
.. मैं रेलवे स्टेशन के अंदर ओवरब्रिज पर खड़ा था और नीचे का नजारा देख रहा था। मेरे ठीक नीचे वाले प्लेटफार्म पर महानगरी एक्सप्रेस मुंबई जाने के लिए तैयार खड़ी थी। लोग आ रहे थे जा रहे थे। मैं गहरी सोच में डूबा हुआ था। लोगों को देखकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे किसी के पास थोड़ा भी समय न हो। विकासशील से विकसित होने की प्रतिस्पर्धा में हर कोई भागा जा रहा था। मैं विचार कर रहा था कि जो हजारों लोग प्रतिदिन आ, जा रहे हैं इससे बाकी लोगों के जीवन में कुछ फर्क पड़ता होगा। शायद नहीं। दुनिया अपने रफ्तार से चलती रहती है।
यहीं सब सोचते सोचते अचानक मेरी नजरें एक जगह जा कर अटक गईं। मैं सोच के संसार से निकल कर वास्तविकता में आया। कोई औरत थी तीस पैंतीस साल की जो दुकान से सामान खरीद रही थी। हरे रंग की साड़ी पहने हुए वो बेहद ही खूबसूरत थी। कलाइयों में हरे रंग की चूड़ियां, गले में मंगलसूत्र कुल मिलाकर रइस खानदान की औरत के सब लक्षण विद्यमान थे। मेरी नजर वहां से हटने का नाम नहीं ले रही थी। एकाएक उसकी नजरें भी मुझसे टकरा गईं। मैंने दूसरी तरफ मुंह घुमा लिया। मेरा मकसद था वो भांप न सके कि मैं उसकी ओर आकर्षित हूं लेकिन वो मेरा संशय ताड़ गई थी। मुझे भीतर ही भीतर डर लग रहा था। जब उसने दुबारा मेरी तरफ देखा एवं हल्का सा मुस्कुराई तो मेरी भी थोड़ी हिम्मत बढ़ी। मैं एकटक उसे निहारने लगा। स्टेशन में उपस्थित सभी लोग अत्यंत ब्यस्त थे। हमारी ओर किसी का ध्यान नहीं था। कोई नहीं जान पाया कि हम दोनों दूसरी दुनिया में जा रहे हैं जहां मन के सारे भेद मिट जाते हैं, जिसमें खो जाने के बाद वापसी मुश्किल हो जाती है।
काफी देर से खड़े खड़े मेरे पैर दर्द करने लगे। मैं सीढ़ियों से नीचे उतरकर प्लेटफार्म पर आ गया और उस औरत के सामने खाली पड़े बेंच पर बैठ गया। मेरी व उसकी निगाहें अब भी टकरा रहीं थीं। कितनी बार मन में ख्याल आता कि उसके पास चलूं, कुछ बातें करूँ। परंतु इस ख्याल से चित्त चंचल न हो जाय मैं अपने विचारों को तुरंत ही दूसरी तरफ मोड़ देता था। वो भी हर महिलाओं की भांति स्वयं पहल करना नहीं चाहती थी। ऐसा प्रदर्शित कर रही थी जैसे सामान खरीदने में बहुत ज्यादा उलझी हुई हो।
सामान खरीद कर उसने बैग में रखा और बटुए से पांच सौ का नोट निकाल कर दुकानदार को दे दिया। दुकानदार के पास शायद खुल्ले नहीं थे। वो बगल वाली दुकान पर छुट्टे लेने चला गया। रेलगाड़ी को सिग्नल देने वाले संकेतक का बल्ब जो अभी तक लाल जल रहा था अब पीला हो गया। जिसका अर्थ था कि अब कुछ ही समय पश्चात गाड़ी चलने वाली है। एक लंबी दूरी का सफर तय करने के लिए । यात्रियों को अपने गंतव्य तक ले जाने के लिए।
दुकानदार अभी तक खुल्ले लेकर न लौटा था। वो औरत बेचैन होने लगी। कारण की महानगरी एक्सप्रेस के खुलने का समय एकदम करीब था। गाड़ी के खुल जाने पर पैसे मिलने असंभव हो जाते। वो बड़ी व्यग्रता से दुकानदार की तरफ देख रही थी जो छुट्टे लेने के साथ साथ गप्पें भी लड़ा रहा था।
" अरे भाई, थोड़ा जल्दी करो। गाड़ी चलने वाली है।"
उसने उसे आवाज लगाई।
" बस आ गया बहन जी "
कहता हुआ दुकानदार रुपयों को गिनते हुए वापस लौटा। बेंच पर बैठे हुए मैं कुछ पल के लिए दूसरी सोच में डूब गया। स्टेशन पर मौजूद हजारों लोग जो दूसरों को धक्का देते और खुद धक्का खाकर भागे जा रहे थे पता नहीं उन्हें किस बात की जल्दी है। चेहरे पर हताशा, खुशी, गम सब भावनायें समेट कर तरह तरह के लोग हैं। सब दौड़ रहे हैं जैसे संसार उन्हीं के इशारों पर चल रहा हो तथा उनके न पहुंचने से रुक जायेगा। मैं स्वयं भी तो इसी धक्का मुक्की में शामिल हूं।
हार्न की आवाज से मैं चौंका। मेरे विचारों पर विराम लग गया। ये उसी महानगरी की आवाज थी जो मुंबई जाने को तैयार थी। उसका समय हो गया था। संकेतक का बल्ब भी हरा जलने लगा। गाड़ी धीरे धीरे चलने लगी। वो औरत दुकानदार से पैसे ले रही थी। उसके पैसे लेकर बटुए मे रखने तक गाड़ी थोड़ी तेज हो चुकी थी।
वास्तव में यह एक निरर्थक ही प्रश्न था जो मैं सोच रहा था उस समय। किस्मत का पन्ना पलटते हुए शायद ही किसी ने देखा होगा। अगर देख पाता तो वह जरूर सृष्टि की पूर्व नियोजित घटनाओं में हस्तक्षेप करता। इंसान बदल देता जीवन और मृत्यु को जो कि विधाता द्वारा रचित अकाट्य निर्धारण है। जिसके आगे प्रत्येक सजीवों और निर्जिवों को नतमस्तक होना पड़ता है। जीवन व मरण सृष्टि संचालन के दो अभिन्न अंग हैं। जो पैदा होता है उसे मरना भी होता है। यह सब पहले से ही निर्धारित होता है। मौत जब आती है तो किसी को कुछ भी पता नहीं चलता। इस संसार की महानतम घटना बहुत ही शान्ति के साथ घट जाती है। खुद जो मृतक हो जाता है उसे भी तब आभास होता है जब अंत एकदम करीब आ पहुंचता है। बस एक क्षण का फासला, एक सेकेंड की दूरी जिसके तुरंत बाद सब खत्म। परंतु सर्वदा के लिए खत्म भी नहीं। अगली यात्रा को शुरू करने से पहले थोड़ा सा विश्राम मात्र। ये सब अध्यात्म की बातें थीं जो आम लोगों की समझ से परे है। खास लोग ही इसका महत्व समझते हैं।
खैर
उस औरत के लिए गाड़ी पकड़ना अत्यंत ही आवश्यक रहा होगा तभी वो गोद में लिए बच्चे को कांख में दाबकर दूसरे कंधे पर पर्स लटकाती हुई गाड़ी की ओर दौड़ी। महानगरी अपनी धीमी गति को तेज करते हुए सरकती जा रही थी। अब वो महिला सामान्य श्रेणी के डिब्बे के सामने थी। बच्चे को कांख में दबाये हुए ही उसने डिब्बे के दरवाजे के हत्थे को पकड़ लिया। घटनाक्रम अत्यंत अल्प समय में घटित होता है। प्रचार तो बाद का काम है। हत्थे को पकड़े पकड़े उसने डिब्बे में घुसने के लिए पांव उठाया। वो अंदर बैठकर चली जाती फिर मेरा वहां बैठना बेकार होता क्योंकि जिस ट्रेन से मुझे घर जाना था उसका भी समय हो चला था। यहीं सोचकर मैं वहां से उठ खड़ा हुआ। सब कुछ सहज ही चल रहा था। लोग भागमभाग में लगे हुए थे। तभी एक अनहोनी हो गई। बहुत ही दर्दनाक हादसा जिसका मैं साक्षी बना। उस महिला का पैर अभी सीढ़ी तक पहुंचा भी नहीं था कि अचानक पता नहीं कैसे उसे धक्का लग गया। धक्का अप्रत्याशित था जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। उसनें संभलने का हरसंभव प्रयास किया पर नाकाम रही। देखते ही देखते वो रेलगाड़ी के नीचे गिर गई।
" गिर गई "
" गाड़ी रोको "
" बचाओ "
तेजी के साथ शोरगुल उभरा। जितने में लोग समझ पाते कि क्या हुआ। जितने में चालक गाड़ी को ब्रेक लगाकर रोक लेता उतने में अचानक गजब हो गया। मृत्यु ने जीवन को निगल लिया। गाड़ी के लौह निर्मित विशालकाय पहियों ने उस औरत के शरीर पर चढ़कर बेदर्दी से चीर दिया। उसकी जीवित काया वक्षस्थल से कटकर दो भागों में बंट गई और मौत की आगोश में जाने के लिए छटपटाने लगी। अत्यंत विकलता पूर्ण तड़प। गाड़ी रुक चुकी थी। सम्पूर्ण दृश्य ही जैसे ठहर गया था। मैं स्तब्ध रह गया। गाड़ी रुकते ही वहां भीड़ जमा हो गई। मैं भी भागा उस तरफ।
" कट गई बेचारी "
" कैसे हुआ ?"
तरह तरह की बातें होने लगीं। उसका कटा हुआ शरीर अब भी तड़फड़ा रहा था। घाव वाले स्थान से मांस के लोथड़े बाहर झूल रहे थे। इस समय उसके तड़प में पहले जैसी तेजी न थी। मौत की छाया हौले हौले पड़ने लगी। उसका शरीर अब शिथिल पड़ने लगा। पांच मिनट की भीषण तड़प के बाद अंततः वो एकदम से शांत हो गई। बहुत ही हृदय विदारक दृश्य था। उसकी लाश अत्यंत वीभत्स थी। जिसकी ओर देखकर मेरी अंतरात्मा तक कांप उठी। उधर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
एकाएक मेरा ध्यान उसके बच्चे के ऊपर गया जिसकी आयु अभी शेष थी। सृष्टि के रचयिता ने उम्र लंबी लिखी थी उसके नसीब में। असंतुलित होने के बाद जब वो महिला गाड़ी के नीचे गिरी बच्चा हाथ से छूट गया तथा छिटककर लुढ़कते हुए थोड़ी दूर चला गया। भगवान का शुक्र था उसे गहरी चोट नहीं लगी। वो बाल बाल बच गया। असमय आये मौत के उस झंझावात में बच्चे का करूण क्रन्दन बेहद ही मर्मांतक हो उठा जो हर किसी के हृदय को बिंध रहा था। वो बेचारा तो नासमझ था अभी। तीन चार साल की उम्र होती ही क्या है। ये तो एक अपरिपक्व अवस्था है जब मस्तिष्क कुछ समझने योग्य नहीं रहता। उसको क्या पता था कि उसकी मां उसे छोड़कर जा चुकी थी। हमेशा के लिए। बहुत दूर। वो तो सिर्फ चोट की वजह से रो रहा था जो गिरने से हल्का लग गया था। जिस दुकानदार ने मृतक औरत को सामान बेचा था उससे रहा न गया। उसने दौड़कर बच्चे को गोद में उठा लिया। इतनी देर में रेलवे पुलिस भी आ गई। लाश अभी तक पटरी पर ही थी। उसके पास कोई भी नहीं जा रहा था। जाता भी क्यों। समाज जिस हिसाब से ढल रहा था दया की मात्रा घटती जा रही थी लोगों के अंदर। वो महिला वहां मौजूद सबके लिए अजनबी थी। शायद इसीलिए सहानुभूति होते हुए भी मदद के लिए कतरा रहे थे सब। पुलिस वालों ने उसके बारे में जानने का काफी प्रयास किया परन्तु कोई कुछ न बता सका। उस महिला की पहचान का केवल उसका बच्चा ही था जो अभी कुछ बता पाने में असमर्थ था। आखिरकार पुलिस नें गदाई को बुलाया जो गंदगी और लाशें उठाने का काम करते हैं। बच्चा अभी तक रो रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उसका यूं मेरी नजरों के सामने मर जाना मेरे लिए किसी अभूतपूर्व घटना से कम न था।
एक चलता फिरता सजीव इंसानी जिस्म केवल कुछ ही क्षणों में निर्जीव व वीभत्स रूप धारण कर लेगा। एक अप्रतिम सौंदर्य इतनी जल्दी विलुप्त हो जायेगा इसकी तो कल्पना भी न थी। पर जो होनी थी वो हो चुकी थी। वो अप्रतिम सौंदर्य विलुप्त हो चुका था। ध्वनि हवा में विलीन हो गई थी। समुद्र की लहरों का अंत हो गया था। गदाई वाले आये। उन्होंने लाश को उठाकर सगड़ी पर लादा। उसी पल मैंने भी अंतिम बार उसकी ओर भरपूर नजरों से देखा। मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसकी मुख छवि मलिन पड़ गई थी। मृत्युपाश ने उसे अपने शिकंजे में जकड़ लिया था। उसके अधरों पर अब भी वहीं मुस्कान थी जो पहली बार मुझसे आंखें मिलने पर उभरीं थीं। दाहिनी तरफ के स्तन से लेकर पूरा सीना रेलगाड़ी के पहियों ने काटकर अलग कर दिया था। सिर्फ बायें ओर का जरा सा हिस्सा बच गया था जिसके कारण शरीर पूर्ण रूप से दो भागों में बंटने से बाकी रहा। आंखें बाहर को निकलीं हुईं थीं। जिस सुन्दरता के पीछे मैं रीझ गया था उसका यह हस्र देख सहम उठा। ज्यादा देर तक उसकी तरफ देख पाना मेरे बस में नहीं था। मैंने लाश पर से नजरें हटा लीं।
बच्चा लगातार रोये जा रहा था। शायद वो भूखा था। दुकानदार ने अपनी दुकान से दूध लाकर उसे दिया तब जाकर वो चुप हुआ। स्टेशन के अंदर लगे प्रसारण यंत्र से किसी गाड़ी के आने की घोषणा हो रही थी। जिस रेलगाड़ी से ये घटना हुई थी वो जा चुकी थी। सामने दूर तक रेल की पटरियां दिखाई दे रही थीं। मैं वापस ओवरब्रिज पर आ खड़ा हुआ। चिलचिलाती धूप से पूरा शहर जैसे झुलस रहा था। जिसकी तपिश मकानों व सडकों के ऊपर साफ दिख रही थी। आसमान में मेघों के जल शून्य टुकड़े इधर से उधर दौड़ते क्रीड़ा कर रहे थे। भांति भांति के आकार धरते आपस में खेल रहे थे। यहीं मेघ क्रीड़ा वो भी देखता होगा जो उस मृतका का पति होगा। व्यग्रता से धर्मपत्नी का इंतजार करते हुए जब उसे ये खबर लगेगी कि जिसका इंतजार कर रहा है अब वो कभी नहीं आयेगी तो क्या बीतेगी उसके दिल पर । विदाई की अंतिम घड़ी में वो उसका चेहरा तक न देख सका। मन भारी होने लगा मेरा।
मैं अब उस प्लेटफार्म पर आया जिस पर मुझे घर जाने वाली रेलगाड़ी खड़ी थी। जब गाड़ी खुल गई तो मैंने एक बार फिर उधर नजरें दौड़ाई। लाश जा चुकी थी। पर ऐसा लग रहा था जैसे वो औरत अब भी उसी दुकान पर सामान खरीद रही है।
समाप्त....