किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती कोई बीस वर्ष की रही होगी और बिहार के एक गांव, अपने ससुराल में अपने पति राम अमोल पाठक, नवजात शिशु चन्दन और जेठानी के संग रहा करती थी। अमरावती के पति राम अमोल पाठक जी बड़े ही सज्जन व्यक्ति थे, अभी-अभी शहर के प्रिंटिंग हाउस में एडिटर की नौकरी लगी थी।
नौकरी की खुशखबरी सुनाते हुए राम अमोल पाठक जी ने अमरावती से कहा-बहुत बड़ी खुशखबरी है शहर में मेरी अच्छी नौकरी लगी है, तुम तो जानती हो भैया व्यापार के सिलसिले में बनारस ही रहते हैं, भाभी यहाँ अकेले कैसे रहेंगी और चन्दन अभी छोटा है तो मैं अभी अकेला ही जाता हूँ।
कोई 17 वर्ष की थी तो उसकी एक सहेली शादी के बाद शहर जा बसी थी, जब भी वह गाँव आया करती तो चमड़े की चप्पलों को पहन कर पूरे गाँव भर में घुमा करती। तभी से ही शहर में रहने की चाह अमरावती के मन में थी। राम अमोल पाठक जी की नौकरी शहर में लगने के बाद तो वह कतई गाँव में रहने को तैयार नहीं थी। राम अमोल पाठक जी के सामने अपनी छवि न खराब करते हुए अमरावती ने उनकी बात में हामी तो भर दी पर अपने मन की करवाने का उपाय ढूँढ लिया। बस क्या था, जब कभी जेठानी अमरावती से कुछ कहती अमरावती पलटकर उल्टा जवाब दे देती, पहले मतभेद शुरू होते और बाद में वह झगड़े का रूप लेते और घर में कलह मच जाता। आख़िरकार राम अमोल पाठक जी ने अमरावती को शहर साथ लेकर जाने का फैसला कर लिया। भाभी ने जब यह सुना कि राम अमोल पाठक जी पूरे परिवार के साथ जा रहे हैं तो बहुत-सी खाने-पीने की चीजें बाँध दीं ताकि वह खाने-पीने की चीज़ें सफर में ले जा सकें।
जिस रोज वह लोग सूरजगढ़ के लिए निकल रहे थे, उस रोज़ अमरावती खूब जमकर तैयार हुई, लाल चूड़ियाँ, लाल नेल पॉलिश, बालों में लाल क्लिप और चमड़े की चप्पल भी लाल ही पहन कर तैयार हुईं। आज तो अमरावती ने साड़ी में खींच कर पिन भी लगाया था, भाभी को तिरछी नजरों से ऐसे देख रही थी मानों नजरों से कह रही हो कि तुम तो गाँव में ही रह गई मैं तो चली शहर।
चन्दन की आंखों में मोटा-मोटा काजल लगाया, ललाट पर काला टीका और गर्मी के मौसम में बच्चे को लंबा-सा मोजा और बड़ा-सा जूता पहनाकर तैयार किया जो कि बार-बार खुलकर गिर रहा था।
राम अमोल पाठक जी के दरवाजे पर बैलगाड़ी आकर लगी और राम अमोल पाठक और अमरावती अपने बेटे चन्दन के साथ बैलगाड़ी पर सवार हो गए। बैलगाड़ी ने इन तीनों को पास के रेलवे स्टेशन पर पहुँचाया। बैलगाड़ी से उतरते ही राम अमोल पाठक जी ने दोनों कंधों पर एक-एक बैग लेकर ट्रेन की ओर चल पड़े और ठीक उन के पीछे-पीछे अमरावती चन्दन को गोद में लेकर चल पड़ी।
राम अमोल पाठक जी ने पलटकर अमरावती की तरफ देखा फिर उसके पांव की तरफ देखा और बोल पड़े।
राम अमोल पाठक जी (अमरावती से) -चंदन की माँ तुमने यह कैसे चप्पल पहन लिए, इन चप्पलों पहन कर कैसे चल पाओगी?
अमरावती (राम अमोल पाठक जी) से क्या जी? मुझे कौन-सा चलना है, चलना तो ट्रेन को है मुझे तो बैठना है सिर्फ।
राम अमोल पाठक जी (अमरावती से) - (मुस्कुराकर) बात तो सही है।
राम अमोल पाठक जी दोनों बैग लेकर ट्रेन पर चढ़ गए, सीट ढूँढ निकाली, अमरावती की गोद से चन्दन को ले लिया और अमरावती ने ट्रेन पर चढ़ने के पहले अपने चमड़े की चप्पलों को हाथ में ले लिया और फिर ट्रेन की सीट पर पहुँच सीट के नीचे बैग के पीछे छुपाकर कर अपनी चप्पलों को रख दिया।
राम अमोल पाठक जी खिड़की वाली सीट पर बैठे थे और नज़ारे देखते हुए शायद आने वाले जीवन के बारे में सोच रहे थे।
और अमरावती अपने बैग की रखवाली कर रही थी, अमरावती को नींद आ तो रही थी पर ट्रैन में सोने को तैयार नहीं थी क्योंकि आस-पास बैठे लोगों पर शायद वह शक कर रही थी। अगर किसी का पांव उसके बैग से लग जाता तो घूर-घूर कर उसकी तरफ देखती और बैग को सीट के और अंदर डालने कोशिश करती। कोई अगर चन्दन की तरफ देखता तो नाराज़ होकर अपने आँचल से चन्दन का चेहरा ढ़क देती।
तभी मैले-कुचैले से कपड़ों में एक कमज़ोर-सी औरत सीट की पास की खाली जगह में आकर बैठ गई। उस महिला के आने के बाद तो अमरावती और भी बेचैन हो गई, कभी चप्पलों को काले बैग के पीछे रखती तो कभी नीले बैग के नीचे, कभी कहीं तो कभी कहीं। आखिरकार उसे नींद आ ही गई, सुबह जैसे आँख खुली उसने देखा महिला तो वहीँ है पर चप्पलें नहीं हैं। अब अमरावती ने मन ही मन में मान लिया की मेरी चप्पलें इसी औरत ने चुराई है और शोर मचाने लगी। अक्सर ट्रैन में ऐसा कोई न कोई व्यक्ति मिल जाता है जो बिना बोले मदद करने को उत्सुक होता है। अमरावती की बौगी में भी ऐसा ही एक व्यक्ति था जो अमरावती की मदद करने को उत्सुक था। पहले तो उस व्यक्ति ने उस गरीब औरत को चप्पलों की चोरी के लिया बहुत डांटा और आख़िरकार हाथ भी उठा दिया, वह बिचारी फुट-फुटकर रोने लग पड़ी। ये सब देख राम अमोल पाठक जी बहुत नाराज़ हुए और अमरावती से कहा-छोड़ दो बिचारी को, शहर पहुँचते ही तुम्हारी चप्पलें खरीदूंगा। उस गरीब औरत से राम अमोल पाठक जी ने कहा-डरो मत बहन, कोई तुम्हे कुछ नहीं कहेगा।
राम अमोल पाठक जी और अमरावती का सफर ख़त्म होता है और सूरजगढ़ पहुँच जाते हैं।
राम अमोल पाठक जी दोनों बैग कंधे पर लटका लेते हैं और ट्रेन से उतर अमरावती से चन्दन को अपनी गोद में ले लेते हैं। अमरावती भी ट्रैन से उतर सिर कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर घुमा-घुमा कर स्टेशन को देख रही होती है।
तभी राम अमोल जी ने अमरावती से कहा-मैंने तुम्हें अपना पर्स रखने को दिया था ज़रा वह दे दो।
अमरावती ने राम अमोल पाठक जी को पर्स देने की खातिर अपने पर्स को खोला तो उसकी चप्पल उसके पर्स में थीं। चप्पलों को पर्स में देख राम अमोल पाठक जी का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है।
राम अमोल पाठक जी ने अमरावती से कहा (नाराज़ होकर) -तुम्हारे खातिर चप्पलें मैं आज ही खरीदूंगा। राम अमोल पाठक जी ने वह चप्पलें पर्स से निकाली और स्टेशन के बाहर बैठी एक भिखारिन को देकर बोले-माँ जी बहुत ज्यादा गर्मी है चप्पलें पहना कीजिए और चप्पलें और उस भिखारिन को दे दी।
अमरावती के चेहरे पर अफ़सोस था पर किसी और बात का नहीं बस चप्पलों को खोने का। किस्सा है अमरावती का, वैसे अमरावती अभी तो 72 वर्ष की है पर यह घटना पुरानी है। अमरावती कोई बीस वर्ष की रही होगी और बिहार के एक गांव, अपने ससुराल में अपने पति राम अमोल पाठक, नवजात शिशु चन्दन और जेठानी के संग रहा करती थी। अमरावती के पति राम अमोल पाठक जी बड़े ही सज्जन व्यक्ति थे, अभी-अभी शहर के प्रिंटिंग हाउस में एडिटर की नौकरी लगी थी।
नौकरी की खुशखबरी सुनाते हुए राम अमोल पाठक जी ने अमरावती से कहा-बहुत बड़ी खुशखबरी है शहर में मेरी अच्छी नौकरी लगी है, तुम तो जानती हो भैया व्यापार के सिलसिले में बनारस ही रहते हैं, भाभी यहाँ अकेले कैसे रहेंगी और चन्दन अभी छोटा है तो मैं अभी अकेला ही जाता हूँ।
कोई 17 वर्ष की थी तो उसकी एक सहेली शादी के बाद शहर जा बसी थी, जब भी वह गाँव आया करती तो चमड़े की चप्पलों को पहन कर पूरे गाँव भर में घुमा करती। तभी से ही शहर में रहने की चाह अमरावती के मन में थी। राम अमोल पाठक जी की नौकरी शहर में लगने के बाद तो वह कतई गाँव में रहने की तैयार नहीं थी। राम अमोल पाठक जी के सामने अपनी छवि न खराब करते हुए अमरावती ने उनकी बात में हामी तो भर दी पर अपने मन की करवाने का उपाय ढूँढ लिया। बस क्या था, जब कभी जेठानी अमरावती से कुछ कहती अमरावती पलटकर उल्टा जवाब दे देती बस फिर क्या पहले मतभेद शुरू होते और बाद में वह झगड़े का रूप ले लेता और घर में कलह मच जाता। आख़िरकार राम अमोल पाठक जी ने अमरावती को शहर साथ लेकर जाने का फैसला कर लिया। भाअमरावतीभी ने जब यह सुना कि राम अमोल पाठक जी पूरे परिवार के साथ जा रहे हैं तो बहुत-सी खाने-पीने की चीजें बाँध दीं ताकि वह खाने-पीने की चीज़ें सफर में ले जा सकें।
जिस रोज वह लोग सूरजगढ़ के लिए निकल रहे थे, उस रोज़ अमरावती खूब जमकर तैयारी हुई, लाल चूड़ियाँ, लाल नेल पॉलिश, बालों में लाल क्लिप और चमड़े की चप्पल भी लाल ही पहन कर तैयार हुईं। आज तो अमरावती ने साड़ी में खींच कर पिन भी लगाया था, भाभी को तिरछी नजरों से ऐसे देख रही थी मानों नजरों से कह रही हो कि तुम तो गाँव में ही रह गई मैं तो चली शहर।
चन्दन की आंखों में मोटा-मोटा काजल लगाया, ललाट पर काला टीका और गर्मी के मौसम में बच्चे को लंबा-सा मोजा और बड़ा-सा जूता पहनाकर तैयार किया जो कि बार-बार खुलकर गिर रहा था।
राम अमोल पाठक जी के दरवाजे पर बैलगाड़ी आकर लगी और राम अमोल पाठक और अमरावती अपने बेटे चन्दन के साथ बैलगाड़ी पर सवार हो गए। बैलगाड़ी ने इन तीनों को पास के रेलवे स्टेशन पर पहुँचाया। बैलगाड़ी से उतरते ही राममोहन पाठक जी ने दोनों कंधों पर एक-एक बैग लेकर ट्रेन की ओर चल पड़े और ठीक उन के पीछे-पीछे अमरावती चन्दन को गोद में लेकर चल पड़ी।
राम अमोल पाठक जी ने पलटकर अमरावती की तरफ देखा फिर उसके पांव की तरफ देखा और बोल पड़े।
राम अमोल पाठक जी (अमरावती से) -चंदन की माँ तुमने यह कैसे चप्पल पहन लिए, इन चप्पलों पहन कर कैसे चल पाओगी?
अमरावती (राम अमोल पाठक जी) से क्या जी? मुझे कौन-सा चलना है, चलना तो ट्रेन को है मुझे तो बैठना है सिर्फ।
राम अमोल पाठक जी (अमरावती से) - (मुस्कुराकर) बात तो सही है।
राम अमोल पाठक जी दोनों बैग लेकर ट्रेन पर चढ़ गए, सीट ढूँढ निकाली, अमरावती की गोद से चन्दन को ले लिया और अमरावती ने ट्रेन पर चढ़ने के पहले अपने चमड़े की चप्पलों को हाथ में ले लिया और फिर ट्रेन की सीट पर पहुँच सीट के नीचे बैग के पीछे छुपाकर कर अपनी चप्पलों को रख दिया।
राम अमोल पाठक जी खिड़की वाली सीट पर बैठे थे और नज़ारे देखते हुए शायद आने वाले जीवन के बारे में सोच रहे थे।
और अमरावती अपने बैग की रखवाली कर रही थी, अमरावती को नींद आ तो रही थी पर ट्रैन में सोने को तैयार नहीं थी क्योंकि आस-पास बैठे लोगों पर शायद वह शक कर रही थी। अगर किसी का पांव उसके बैग से लग जाता तो घूर-घूर कर उसकी तरफ देखती और बैग को सीट के और अंदर डालने कोशिश करती। कोई अगर चन्दन की तरफ देखता तो नाराज़ होकर अपने आँचल से चन्दन का चेहरा ढ़क देती।
तभी मैले-कुचैले से कपड़ों में एक कमज़ोर-सी औरत सीट की पास की खाली जगह में आकर बैठ गई। उस महिला के आने के बाद तो अमरावती और भी बेचैन हो गई, कभी चप्पलों को काले बैग के पीछे रखती तो कभी नीले बैग के नीचे, कभी कहीं तो कभी कहीं। आखिरकार उसे नींद आ ही गई, सुबह जैसे आँख खुली उसने देखा महिला तो वहीँ है पर चप्पलें नहीं हैं। अब अमरावती ने मन ही मन में मान लिया की मेरी चप्पलें इसी औरत ने चुराई है और शोर मचाने लगी। अक्सर ट्रैन में ऐसा कोई न कोई व्यक्ति मिल जाता है जो बिना बोले मदद करने को उत्सुक होता है। अमरावती की बौगी में भी ऐसा ही एक व्यक्ति था जो अमरावती की मदद करने को उत्सुक था। पहले तो उस व्यक्ति ने उस गरीब औरत को चप्पलों की चोरी के लिया बहुत डांटा और आख़िरकार हाथ भी उठा दिया, वह बिचारी फुट-फुटकर रोने लग पड़ी। ये सब देख राम अमोल पाठक जी बहुत नाराज़ हुए और अमरावती से कहा-छोड़ दो बिचारी को, शहर पहुँचते ही तुम्हारी चप्पलें खरीदूंगा। उस गरीब औरत से राम अमोल पाठक जी ने कहा-डरो मत बहन, कोई तुम्हे कुछ नहीं कहेगा।
राम अमोल पाठक जी और अमरावती का सफर ख़त्म होता है और सूरजगढ़ पहुँच जाते हैं।
राम अमोल पाठक जी दोनों बैग कंधे पर लटका लेते हैं और ट्रेन से उतर अमरावती से चन्दन को अपनी गोद में ले लेते हैं। अमरावती भी ट्रैन से उतर सिर कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर घुमा-घुमा कर स्टेशन को देख रही होती है।
तभी राम अमोल जी ने अमरावती से कहा-मैंने तुम्हें अपना पर्स रखने को दिया था ज़रा वह दे दो।
अमरावती ने राम अमोल पाठक जी को पर्स देने की खातिर अपने पर्स को खोला तो उसकी चप्पल उसके पर्स में थीं। चप्पलों को पर्स में देख राम अमोल पाठक जी का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है।
राम अमोल पाठक जी ने अमरावती से कहा (नाराज़ होकर) -तुम्हारे खातिर चप्पलें मैं आज ही खरीदूंगा। राम अमोल पाठक जी ने वह चप्पलें पर्स से निकाली और स्टेशन के बाहर बैठी एक भिखारिन को देखकर बोले-माँ जी बहुत ज्यादा गर्मी है चप्पलें पहना कीजिए और चप्पलें और उस भिखारिन को दे दी।
अमरावती के चेहरे पर अफ़सोस था पर किसी और बात का नहीं बस चप्पलों को खोने का।