पिछले हफ्ते मुंबई जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 2007 मे आईआईटी मुंबई से निकलने के बाद ये पहला ऐसा मौका था जब मुंबई की हवा को इतनी करीबी से महसूस किया। शहर की दशा देखकर दुख भी हुआ और आश्चर्य भी कि मुंबई अभी भी जीवंत है, अभी भी उतनी ही inviting.
जाते समय हम लोग लखनऊ से फ्लाइट लेकर मुंबई तक गए। ये यात्रा खुद मे काफी रोचक थी क्योंकि कल्पनेश मेरे साथ थे और उन्होने रास्ते मे मुझे क्रियायोग पर अच्छा खासा ज्ञान दे दिया। इन विषयों पर तो कभी और बात की जाएगी, फ़िलहाल मुद्दे की बात पर आता हूँ।
5-7 दिन के इस ट्रिप मे कुछ बाते मुझे बहुत विकराल रूप मे दिखीं, इतनी विकराल कि न चाहते हुये भी मैंने इस विषय पर लिखने कि हिम्मत जुटा ही ली। मुंबई सागर के तट पर बसा हुआ है, समंदर से आती हवाओं की वजह से यहाँ का वातावरण दिल्ली जैसे शहरों की अपेक्षा अधिक साफ रहता था। पर इस बार बात कुछ और थी। आसमान काला था। किसी मैकेनिक की दुकान पर जाइए तो आस पास की जमीन काली होती ही होती है। यहाँ तो पूरा शहर ही काला पड़ा था। जमीन तो जमीन, हवा भी काली हो रही थी। 16 लेन की सड़कें रात को 12 बजे जाम थीं। हवा मे डीजल, पेट्रोल और धुएँ की महक थी। जहां पहले पेड़ थे, अब वहाँ सड़कें हैं। जहां पहले जंगल थे, अब वहाँ slums हैं। जहां पहले slums थे, अब वहाँ बिल्डिंग्स हैं। जहां पहले बिल्डिंग्स थी, वहाँ अब एक और बिल्डिंग है।
शाम को 6 बजे के आस पास पवई से गोरेगांव जा रहा था। जाने वाली सड़क एक 3 लेन की पतली सड़क है जो जंगल के बीच से होकर जाती है। मुंबई की सबसे खूबसूरत सड़कों मे से एक। अभी तक इस सड़क से निकलने के लिए टोल देना पड़ता था पर कुछ समय पहले इससे टोल हटा दिया गया। इस सड़क पर दोनों साइड का ट्रेफिक रहता है पर मैंने देखा क्या कि सामने से एक भी गाड़ी नहीं आ रही जबकि अपनी तरफ गाड़ियों की एक लंबी कतार लगी हुई है। लंबी बोले तो, 4-5 किलोमीटर लंबी। काफी देर तो मेरा ऑटो भी गलत लेन पर चलते हुए आगे तक चला गया पर 1-2 किलोमीटर बाद वो भी असंभव दिखने लगा। सड़क आगे पूरी तरह से जाम थी। जितनी दूर तक भी आपकी नज़र जा सकती थी, उतनी दूर तक। थोड़ी देर खड़ा रहा तो देखता क्या हूँ, कि सामने से एक गाड़ी उल्टी दिशा मे चलती हुई आ रही है, और उसके पीछे ट्रेफिक का पूरा सैलाब लगा हुआ है, उल्टी दिशा मे। एक आदमी के उल्टी दिशा मे गाड़ी चलाने की वजह से हजारों गाडियाँ घंटों से इस जाम मे फंसी हुई थी। 5 घंटे लगे उस जाम को खुलने मे। लोग कह रहे हैं कि, इस तरह के दृश्य मुंबई मे आम हो चले हैं। प्रतिदिन हजारों गाडियाँ उन सड़कों पर डाली जा रही हैं जिनपर शायद अब एक की भी जगह नहीं बची है। काँग्रेस द्वारा वेस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर लगाए गए एक बड़े बोर्ड पर अनायास ही नज़रें चली गयी – मुंबईकर त्रस्त, भाजपा शिवसेना मस्त!
अगर किसी मेढक तो पानी मे रखकर धीरे धीरे उबाला जाए तो उस मेढक को पता नहीं चल पाता कि कब पानी का तापमान उसकी सहनशीलता से अधिक हो जाता है। और वो पानी के साथ उबलकर मर जाता है, बिना किसी प्रतिरोध के। ये समस्याएँ जैसे जैसे बढ़ रही हैं वैसे वैसे हम भी अभ्यस्त होते चले जा रहे हैं। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो परिणाम विनाशकारी होंगे। गाड़ियों की समस्या से मुंबई ही नहीं बल्कि दिल्ली भी त्रस्त है। वहाँ भी तरह तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। और दिल्ली ही क्यों, भारत का हर शहर इस रोग से ग्रसित है। हो भी क्यों न, हम मे से हर किसी के पास या तो गाडियाँ हैं या गाडियाँ खरीदने के सपने। देश के युवाओं से पूछिए कि अभी उनको एक करोड़ रुपये दे दिये जाएँ तो वो उनका क्या करेंगे? 80 प्रतिशत का जवाब होगा कि सबसे पहले तो एक बड़ी सी गाड़ी खरीद लाएँगे। देश के लिए इतनी बड़ी जनसंख्या का बोझ उठाना वैसे भी आसान काम नहीं है, अब ऊपर से हर कोई गाड़ी चाहता है। समय आ चुका है जब हम अपने शहरों पर रहम खाएं और गाडियाँ, विशेषकर बड़ी गाडियाँ रखने से बचें। अधिक से अधिक पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करें और यदि वो शहर मे उपलब्ध नहीं है, तो शासन-प्रशासन पर उचित दबाव बनाएँ इसके लिए। हर टोल प्लाज़ा पर गाडियाँ रुकवा कर टोल वसूलने से अच्छा होगा यदि उचित और आसान तरीकों से रोड टैक्स लिया जाए। गाडियाँ रखना इतना सस्ता भी नहीं होना चाहिए।
शिवसेना की एक विंग अक्सर कहती आई है कि मुंबई मे बाकी राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार से, पलायन रुकना चाहिए। उनकी बरसों पहले की ये दूरदर्शिता काबिले तारीफ है। परंतु उत्तर भारत के लोगों ने हमेशा इसको एकराष्ट्रवाद से जोड़कर इसपर बवाल ही बनाया है। परिणाम आपके सामने है। यदि अभी भी नहीं दिख रहा तो थोड़े दिन और रुकिए, बड़े स्पष्ट रूप से दिख जाएगा। आवश्यकता है मुंबई पर भार कम करने की और इस काम को सरकारों के माथे नहीं मढ़ा जा सकता। यदि आपका शहर मुंबई जितना विकसित नहीं है तो आपके शहर से लोग मुंबई मे पलायन करेंगे ही। सुनिश्चित करना होगा कि आपके शहर मे रोजगार और मनोरंजन के उचित अवसर उपलब्ध हो रहे हैं या नहीं। अगर नहीं हो रहे, तो अब इस दिशा मे सीधा प्रयास प्रारम्भ करने की आवश्यकता है।
निर्णय आपका है, आप किसी शहर पर बोझ बनकर रहना चाहते हैं या किसी शहर का बोझ हल्का करना चाहते हैं?