KGF की असली कहानी: कभी भारत का 'इंग्लैंड' कहा जाता था, यहां के लोगों ने 121 साल में सबकुछ देख लिया
कोलार गोल्ड माइन की 121 साल की कहानी ...
KGF… फिल्म का दूसरा चैप्टर भी धमाल मचाए हुए है. फिल्म काफी पसंद की जा रही है. बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी असली के KGF को अंग्रेज पसंद करते थे. केजीएफ की कहानी पर पहुंचने से पहले ‘द बिग बुल’ फिल्म में अभिषेक बच्चन के एक डायलॉग की तरफ जाते हैं. ये डायलॉग है, ‘जिंदगी में दो चीज जरूरी मानी जाती है. पानी और सोना. एक के बिना आदमी जी नहीं सकता है. सोना न पीने के काम आता है, न खाने के. न नहाने के और न धोने के. लेकिन, फिर भी भाव सोने का है. पानी का नहीं.’ लेकिन, असली के केजीएफ को इसी सोने के भाव ने मार दिया. मारा ऐसा कि 21 साल से बंद पड़ा है.|
KGF मतलब कोलार गोल्ड फील्ड. बेंगलुरु से करीब 100 किमी की दूरी पर स्थित इस शहर की कहानी ही असली केजीएफ की कहानी है. यह एशिया का दूसरा और भारत का पहला शहर है, जहां बिजली शुरू हुई थी. यहां काम करने वाले और इलाके में रहने वालों को कोई दिक्कत न हो, इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने एक झील बनवाई. आर्टिफिशियल झील. यह आज भी मौजूद है और टूरिस्ट के आकर्षण का केंद्र है. एक समय करीब 40 हजार कर्मचारी यहां काम करते थे और उनकी फैमिली आसपास के इलाकों में रहती थी. ये वो दौर था जब बिजली-पानी की सप्लाई सबसे वीवीआईपी फैसिलीटी होती थी.|
KGF फिल्म आज जिस तरह करोड़ों कमा रही है, ठीक उसी तरह केजीएफ 1900 के पहले दशक में सोने का उत्पादन करता था. न्यूज 18 से बात करते हुए भूवैज्ञानिक एमएस मुनीस्वामी कहते हैं, उस समय केजीएफ से भारत का 95% सोना निकलता था और भारत सोना प्रोड्यूस करने में दुनिया में छठे स्थान पर पहुंच गया था.|
इलाके में बिजली पहुंच चुकी थी. शिवनसमुद्र में बना कावेरी बिजली केंद्र से बिजली सप्लाई ऐसी होती थी कि पॉवर कट कभी होता ही नहीं था. इलाका ठंडा था तो अंग्रेजों के रहने के लिए मुफीद था. सोने से कमाई भी हो रही थी. ऐसे में यहां ‘विकास’ भी पहुंचने लगा था. ब्रिटिश इंजीनियर्स, ऑफिसर्स के साथ-साथ सोने की डील करने वाले लोगों के लिए बंगले, अस्पताल, स्कूल से लेकर क्लब तक यहां बन गए थे. बड़े-बड़े गोल्फ कोर्स थे. यहां इस तरह से ‘विकास’ हुआ कि लोग इसे भारत का ‘इंग्लैंड’ कहने लगे.|
था से आगे बढ़ते हैं. क्या है की तरफ. यहां रहने वाले 75 साल के एम विन्यास न्यूज 18 को बताते हैं, जब तक यहां माइन चला कभी बिजली नहीं जाती थी. न पानी की कमी होती थी. लेकिन, आज यहां न सलीके से बिजली आती है और न ही पीने के लिए भरपूर पानी है. यहां काम करने वाले मजदूर भीषण गरीबी में जीने को मज़बूर हैं. आज स्थिति ये है कि इस इलाके में 2.5 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं, लेकिन न तो उनके पास रहने के लिए बेहतर घर है और न ही कोई सुविधा. ऊपर से माइन के कचरों से जो प्रदूषित पर्यावरण है वह ढेरों बीमारियों की वजह है. नौकरी करने के लिए लोग बेंगलुरु जाते हैं.|
लेकिन, यहां दो दुनिया थी. एक बड़े लोगों की तो दूसरी माइन में काम करने वाले भारतीय मजदूरों की. एक तो इग्लैंड जैसी थी, लेकिन दूसरे में 100-100 स्क्वॉयर फीट की कूली बनी होती थी, जिसमें मजदूर रहते थे. ऐसी 400 कूली वहां थी. उनके पास न तो प्रॉपर टॉयलेट थे और न ही सीवर लाइनें. चूहों का ऐसा आतंक कि साल भर में लोग हजारों चूहों को मारते थे|
कोलार गोल्ड फील्ड की कहानी
हालांकि, यहां काम करने वालों के पास एक रोजगार था. साल 2001 में वह भी छिन गया. 121 साल तक चले KGF को सरकार ने बंद कर दिया. इसके पीछे कहा गया कि खनन में आने वाला खर्च उससे होने वाली कमाई से बहुत ज्यादा है. सरकार इस बोझ को उठा नहीं पाई. फिर उस समय सोने का दाम भी गिर गया था. ऐसे में करीब 30 हजार कर्मचारियों का बोझ उठाना मुमकिन नहीं था. सरकार ने माइन को बंद कर दिया|.
यहां से कर्मचारियों की स्थिति और बिगड़ी. अब न तो उनके पास नौकरी बची और न ही रहने के लिए कोई ‘घर’. ऊपर से माइन में काम करने वाले मजदूर तमाम बीमारियों के शिकार हुए, जिसमें लंग कैंसर, लीवर कैंसर और सिलिकोसिस जैसी बीमारी थीं. इलाके में अब न तो बेहतर बिजली सप्लाई है और न ही पानी. लोग खुले में शौच करते हैं. माइन्स की वजह से वहां साइनाइड हिल्स बन गए हैं. उससे होकर गुजरने वाली हवा और पानी लोगों की सेहत भी खराब कर रही है.|
वहां रहने वाले वी. अधिनारायणा का कहना है, साल 2001 में खदान बंद हुआ तो हजारों श्रमिक सड़कों पर उतर आए. उन्हें साथ मिला उन मजदूरों का जो पहले ही नौकरी खो चुके थे. बाद में सरकार ने मजदूरों से बात करके उन्हें अलग-अलग पैरामीटर में पेंशन और मुआवजे दिए. हालांकि, मजदूरों का कहना है कि ये मुआवजे जीवन काटने के लिए पर्याप्त नहीं थ
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कई वर्षों तक केंद्र सरकार और भूविज्ञान विभाग में काम किए एमएस मुनीस्वामी कहते हैं, KGF में अब भी दस हजार करोड़ से ज्यादा की कीमत का सोना है. 20 साल से वहां खुदाई नहीं हुई है. करीब 12,500 एकड़ में फैले इस क्षेत्र के आधे भाग में ही खुदाई हुई है. आधे भाग का सोना अभी वहीं है. साल 2001 में जब माइन बंद की गई थी तो इसकी संपत्ति करीब 4.1 करोड़ डॉलर आंकी गई थी. हालांकि, उस समय एक टन मिट्टी खोदने में 11,000 रुपये की लागत थी और सोने का भाव 3 हजार रु. प्रति ग्राम था. ऐसे में माइन को बंद करना ही सरकार ने उचित समझा.|
KGF के साथ- साथ कई कहानियां भी चलती हैं
इलाके के लोग ऐसी कहानियां बताते हैं कि यहां लोग हाथ से खोदकर सोना निकाल लेते थे. इसकी सूचना ब्रिटिश सरकार में लेफ्टिनेंट रहे जॉन वॉरेन को मिली तो वह मौके पर पहुंचे. उन्होंने ग्रामीणों से कहा कि जो इस खदान से सोना निकालकर दिखाएगा, उसे इनाम मिलेगा. एक ग्रामीण मिट्टी से भरी एक बैलगाड़ी लेकर आया. मिट्टी पानी में धोने पर उसमें सोने का अंश दिखा. हालांकि, इसके बाद भी वहां काम नहीं शुरू हुआ. लेकिन, सोने की चाहत में काफी लोगों की मौत हुई. साल 1871 में ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्जगेराल्ड लेवली को ‘एशियाटिक जर्नल’ में छपी एक रिपोर्ट मिली, जिसमें कोलार गोल्ड फील्ड का उल्लेख था. उन्होंने बैलगाड़ी से इलाके में रिसर्च की और वह सोने के खदान तक पहुंचने में कामयाब रहे. 1875 में उन्हें मैसूर के राजा से वहां खुदाई का लाइसेंस मिल गया. इसके बाद तो केजीएफ पूरी दुनिया में छा गया.
आजाद भारत में क्या स्थिति बनी
साल 1956 में केंद्र सरकार ने केजीएफ का कंट्रोल अपने हाथों में ले लिया. ज्यादातर खदानों का स्वामित्व राज्य सरकार को दे दिया गया. इसका राष्ट्रीयकरण किया गया. लेकिन, इस बीच KGF घाटे का सौदा साबित होने लगा. साल 1979 के बाद स्थिति ये बनी की मजदूरों की सैलरी प्रभावित होने लगी. यह घाटा लगातार बढ़ता गया और साल 2001 में इसे बंद करना पड़ा.
कोलार गोल्ड फील्ड की कहानी
एमएस मुनीस्वामी कहते हैं, पिछले 20 वर्ष में केजीएफ अब खंडहर बन गया है. यहां की खदानों में पानी भर गया है. उनका कहना है कि साल 2016 में केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से इसके पुनरुत्थान के लिए बात की थी. वह इस दिशा में कुछ काम कर भी रही है, लेकिन जमीन पर अभी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है.|