प्रेम ईश्वर का दूसरा रूप माना गया है। धार्मिक ग्रंथों, वेद, पुराण, शास्त्र आदि सब इस बात का समर्थन करते है। अंग्रेजी में भी एक कहावत है - Love is God. अनेक संत महात्माओं ने भी प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का साधन बताया है। लेकिन मेरे विचारो के अनुसार प्रेम ही इस संसार में दुखों का कारण है। कोई इंसान प्रेम के वशीभूत होकर लौकिक संसार में सुख पूर्वक नही रह पाता फिर इस लौकिक संसार में ईश्वर प्राप्ति कैसे ?
इस लौकिक संसार में जो प्रेम इंसान को अपने कर्तव्य से डिगा दे, जिसके वश में इंसान को सही - गलत का अनुभव न हो, जिसके प्रभाव से उचित निर्णय शक्ति का नाश हो जाए, वह प्रेम ईश्वर का रूप हो ही नही सकता।
यह प्रेम ही मोह का कारक है, लोभ का कारक है, क्रोध का कारक है, यहां तक कि काम का कारक भी प्रेम ही है।जब इंसान को ये चारो चीजे मिल जाती है तो अहंकार का जन्म होता है। अतः हम कह सकते है कि ये पांचों भूत (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) प्रेम के कारण ही उत्पन्न होते है।
यह प्रेम ही है जो जिंदा रहने पर इंसान को सुकून से जीने नही देता, और अंत समय में सुकून से मरने भी नही देता।प्रेम का सबसे बड़ा दोष यह है कि जिससे प्रेम है उसका कोई अवगुण नजर नहीं आता। और भी कई दोष है, जैसे :-
" प्रेम से ही अंधविश्वास पनपता है जिससे सरासर गलत बात सही प्रतीत होती है। "
" प्रेम से अनुशासन हीनता पनपती है, जिससे अपने से छोटे - बड़े और मान अपमान का ध्यान नहीं रहता। कब किससे क्या बात करनी है इसका कोई भान नहीं रहता। "
" प्रेम से ही उद्दंडता, जिद और शरारत का जन्म होता है जिससे अपने पराए का ध्यान नहीं रहता। कब किसका कहां पर अपमान हो जाए पता नही! "
" प्रेम सबसे ज्यादा काश्तकारक तब होता है जब कोई प्रेमी युगल एक दूसरे से बिछड़ते है। उस समय सारी कायनात खाली खाली लगती है। "
" जब हमारे हृदय में प्रेम का अंकुर फूटता है तो अपना मन, अपना दिमाग, अपना शरीर अपना सब कुछ अपने नियंत्रण में नहीं रहता। अपने से ज्यादा उसकी फिकर रहती है, यहां तक कि दिन का चैन, रात की नींद, खाना-पीना सब कुछ हराम हो जाता है। "
" जिससे भी हद से ज्यादा प्रेम करते है, उसके भाव अवश्य ही बढ़ जाते है। उस स्थिति में एक दूसरे की सारी कमजोरियों से अवगत हो जाने पर ब्लैकमेलिंग शुरू हो जाती है। धीरे - धीरे यही स्थिति बिगड़ कर अनैतिक अपराध का रूप धारण कर लेती है। "
सतयुग, त्रेता, द्वापर और अब कलयुग में ऐसे अनेकों प्रमाण मिलते है जहां दुख का मुख्य कारण सिर्फ और सिर्फ प्रेम है। आइए आपको देते है प्रमाण ......
सतयुग
ये प्रेम ही है जो मानव जीवन में समय के साथ अपने अनेक रूपों में परणित हो जाता है। मोह, काम, वासना, आसक्ति, क्रोध, अहंकार, क्षोभ आदि प्रेम के ही अन्य रूप है। सतयुग में महर्षि दुर्वासा हुए है, समस्त विश्व उनके नाम व क्रोधी स्वभाव से परिचित है। दुर्वासा ऋषि भगवान शिव के अंशावतार माने जाते है। दुर्वासा ऋषि बड़े ही स्वाभिमानी पुरुष थे। स्वाभिमान का अर्थ होता है - खुद पर अभिमान अर्थात् खुद से प्रेम । जब इंसान के स्वाभिमान पर ठेस लगती है तभी क्रोध का जन्म होता है। ये अवगुण महर्षि दुर्वासा में भी था। उनके इस अवगुण ने अनेक जीवन तबाह कर दिए। एक बार महर्षि दुर्वासा घोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या को देख कर देवराज इंद्र को चिंता हुई। देवराज इंद्र को अपने पद तथा सिंहासन से अत्यंत प्रेम था। देवराज इंद्र सोचने लगे कि ऐसा तो नहीं कि दुर्वासा ऋषि इंद्र लोक पर कब्जा करने की नियत से तपस्या कर रहे हों, क्योंकि देवराज इंद्र के साथ ऐसा कई बार हो चुका था। चिंतित देवराज इंद्र ने दुर्वासा ऋषि की तपस्या भंग करने का षड्यंत्र रचा।