रात की चांदनी का ज़िक्र बड़ा सुना है
शीतल है धीमी है मंद मंद डसती है
किसी किसी पे हँसती है किसी को मन लुभाती है
हर को प्रतिबिम्ब की तरह उसी की बीती सुनाती है.....!
कुछ पागल होते है बिना कुछ किये रोज रात में सपने सजाते है
सपने ही पाते है...!
कोसते है चाँद को उसकी कमी बताते है
चाँद भी हंस पड़ता है प्रतिबिम्ब भी दिखाता है
शांत रात में जोर जोर चिल्लाता है
ओह ये मानव कहा सुन पाता है सपने ही बुनता है सपने ही पाता है........!
कुछ तो प्रियतम की छबि चांदनी में पाते है
चाँद का चकोर बड़े प्यार से दुलारते है
डरते थे जो कहने से उसी को दोहराते है
चाँद भी बताता है जोर से चिल्लाता है
बोल दे जो बोलना है इतना क्यों घबराता है
पर ये मानव कहा सुन पाता है सपने ही बुनता है सपने ही पाता है........!
अब कर भी क्या सकते है चाँद भी तो बेबस है
दोनों की सुनता इसकी उसे बताता है उसकी इसे बताता है
पर ये मानव कहा सुन पाता है
चाँद को ही कोसता है तू न होता तो आज वो मेरे सामने होती
अब सारी रात वो सपने ही बुनता है सपने ही पाता है.....!