भावुक हृदय जलमग्न आंखे
घोर वेदना के सिंधु में डूबते उतिराते है
रोज की रात ऐसी ही होती है
की क्रोध से कोपित हृदय है
लावा भभकता उठ रहा है
इस ज्वालामुखी को विवेक से शांत करते है
अनर्थ हो रहा है अधर्म बढ़ रहा है
कब तक शांत हो उठो जागो डोर थाम्हो
कसो सीधे खींचकर अब सहा नहीं जाता है
हाल देख विश्व का देश का समाज का
रोज की शाम ऐसी ही होती है
हृदय व्याकुल और नींद कम कर देती है..!