राजनीत के दाँव
पर खाकी
विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता
पर बड़े जोर – शोर से बहस चल रही है । आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश
उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक सौहार्द आज बड़ी ही बदतर स्थिति में है ।
मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद बिसाहड़ा काण्ड ने इस बहस को और उग्र कर दिया है ।
कथित बुद्धिजीवी वर्ग ने विरोध स्वरूप सरकारी पुरुस्कार लौटाकर सामाजिक बेचैनी को
और बढ़ाने का ही काम किया है । ऐसा पहली बार नहीं है कि उत्तर प्रदेश
साम्प्रदायिकता की आग में झुलसा हो । राजनैतिक बिसात के रूप में यहाँ इस तरह का
सामाजिक तनाव मतों के ध्रुवीकरण के लिए अक्सर ही तैयार किया जाता रहा है ।
विकास, समरसता, क़ानून
व्यवस्था और रोज़ग़ार जैसे मुद्दों के आधार प समाजवादी पार्टी (सपा) 2012 के
चुनावों में भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में आयी थी । जनता ने एक युवान को
परिवर्तन की आस लगाकर देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमन्त्री बनाया । लेकिन
नतीज़ा वही ढाक के तीन पात ही रहा । युवा मुख्यमन्त्री अखिलेश सिंह यादव की सरकार
क़ानून व्यवस्था के मोर्चे पर पूरी तरह विफल ही रही है । क़ानून व्यवस्था को
सम्भालने वाला विभाग आज घोर अव्यवस्थाओं का शिकार है । जनता को सुरक्षा की गारण्टी
देने वाला पुलिस महकमा खुद ही असुरक्षित नज़र आता है । मथुरा के जवाहरबाग काण्ड
में एस. पी. सिटी मथुरा मुकुल द्विवेदी और फरह थानाध्यक्ष सन्तोष यादव की हत्या से
पूर्व कुछ इसी तरह प्रतापगढ़ के वलीपुर में पुलिस उपाधीक्षक ज़ियाउल हक़ की गोली
मारकर निर्मम हत्या कर दी गयी थी । सपा की मौजूदा सरकार में खाकी बार – बार ख़ून
में नहलायी जा रही है । पिछले चार वर्षों में पुलिस पर 1100 से भी ज्यादा हमले
सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही किए जा चुके हैं । लेकिन सरकार जांबाज सिपाहियों को
दंगों के गर्त में बिना तैयारी के धकेलकर एक तरह से आत्म हत्या को विवश कर रही है
। आँकड़े बताते हैं कि मौजूदा वर्ष में प्रत्येक 32 घण्टे में कहीं न कहीं पुलिस
पर हमला हो ही जाता है । प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था को चाक – चौबन्द बताकर सदैव
अपनी ही पीठ थपथपाती दीखती है । बेशर्मी की भी कोई हद होती है, लेकिन यह सरकार
अपनी नाकामी का ठीकरा किसी न किसी प्रशासनिक अधिकारी (यथा आई. ए. एस. और आई. पी.
एस.) के सिर फोड़ देती है । परिणाम स्वरूप अधिकारियों को स्थानानान्तरण या निलम्बन
की सज़ा देकर घटना से पल्ला झाड़ लिया जाता है । अभी पिछले महीने गौतमबुद्धनगर के
दादरी में एक शातिर अपराधी फ़ुरकान को पकड़ने गयी पुलिस के दारोगा अख़्तर ख़ान को
अपनी जान गंवानी पड़ी । इन सारे मसलों में एक ही बात निकलकर सामने आती है कि
अपराधियों के विरुद्ध चलाए जा रहे पुलिस ऑपरेशन आधी – अधूरी तैयारी के साथ होते
हैं । एक ओर जहाँ अपराधी आधुनिक हथियारों से लैस होते हैं वहीं हमारी पुलिस के पास
दोयम दर्जे के हथियार ही होते हैं । एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अपराधियों
के पक्ष में सफेदपोशों की ताक़त और संरक्षण के साथ ही मानवाधिकारों के अलम्बरदारों
की आवाज़ भी उन्हें मज़बूत करती है । वहीं बेचारी पुलिस राजनैतिक व सामाजिक
मकड़जाल जैसे उलझे सम्बन्धों में उलझी नज़र आती है । क़ानून के खूंटे से बंधी
पुलिस न तो समाज की ही हितैषी बन पाती है और न ही अपने कार्य को दबाव मुक्त तरीके
से अन्ज़ाम दे पाती है ।
मथुरा के जवाहर बाग में
रामवृक्ष यादव के उपद्रवी पिछले दो वर्षों से जमे हुए थे । जिहादी संगठनों की तरह
रामवृक्ष भी आम जन की भावनाओं के उकसाकर उन्हें जिहादी बनाता था और एक बार चंगुल
में फंस जाने पर क्रूर आतंकी की तरह बलपूर्वक डरा – धमका कर अपना साथ देने पर विवश
करता था । यहाँ यह जान लेना भी समीचीन होगा कि रामवृक्ष यादव जयगुरुदेव नाम के
धार्मिक नेता का चेला था । सभी जानते हैं कि जय गुरुदेव के राजनैतिक सम्बन्ध किससे
और कितने मज़बूत थे । इसी कड़ी में रामवृक्ष यादव की भी राजनैतिक पकड़ भी किसी से
छुपी नहीं थी । लोकसभा चुनाव 2014 में इसी रामवृक्ष ने मुख्यमन्त्री महोदय के
चचेरे भाई और सपा महासचिव रामगोपाल यादव के सुपुत्र अक्षय यादव के पक्ष में
फ़िरोज़ाबाद में चुनाव प्रचार भी किया था । रामवृक्ष यादव के आतंकी ठिकाने
जवाहरबाग में मिले हथियारों और विस्फोटकों के जखीरे से उसके नक्सलियों से भी
सम्बन्ध होने की बात सामने आ रही है । एक ख़बर के मुताबिक उड़ीसा के कटक से एक
समूह द्वारा 22 लाख रूपये की राशि रामवृक्ष के पास भेजने की पुख्ता जानकारी मिली
है । इन सारे तथ्यों से रामवृक्ष यादव के कृत्य को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं लगता
। बिना किसी बड़े राजनीतिक संरक्षण के इस तरह का दुस्साहस असम्भव प्रतीत होता है ।
प्रदेश सरकार के खास लोगों से रामवृक्ष के सम्बन्धों से भी इंकार नहीं किया जा
सकता है । कथित सत्याग्रह के नाम पर 15 मार्च 2014 से रामवृक्ष यादव मथुरा के
जवाहरबाग मे टिका हुआ था जबकि प्रशासन के उसे मात्र 2 दिनों की ही अनुमति मिली थी
। आखिर किसके बूते वह दो साल से जवाहर बाग में अपने दहशतगर्दों के साथ रह रहा था ।
खुफिया सूचना होने के बाद भी आखिर सरकार ने उसे वबाँ से क्यों नहीं निकाला । छोटी –
छोटी बातों को लेकर विपक्षी राजनैतिक दल आये दिन हो हल्ला मचाते रहते हैं किन्तु
पिछले दो वर्षों में किसी भी बड़े संगठन की ओर से कोई बड़ी आवाज नहीं उठाई गयी ।
राज्य का अस्तित्व संघ से
है और राज्य में इसतरह की वारदातें केवल राज्य का दायित्व हैं ऐसा कहना ओछी
मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं । उत्तर प्रदेश ने केन्द्र सरकार को लोकसभा में 73 जन
प्रतिनिधि दिये हैं । मथुरा का भी प्रतिनिधित्व भाजपा की सांसद हेमा मालिनी कर रही
हैं । सांसद महोदया को अपने क्षेत्र में 2 सालों से कब्जा जमाए दहशतगर्दों की
कारगुजारियां आखिर क्यों दिखायी नहीं दीं ? क्या जवाहरबाग
की चिंगारी को आग में तब्दील होने की प्रतीक्षा की जा रही थी ? क्यों केन्द्र
या राज्य सरकार दुर्घटना से पहले घटनाक्रमों को नज़र अन्दाज़ करती रहती हैं ? संवेदनशील
मुद्दों पर आखिर क्यों मतलबी राजनीति संवेदन हीनता का परिचय देती है ? बिना कोई नर
बलि लिए आखिर क्यों मामलों का पटाक्षेप नहीं होता ? जन
प्रतिनिधियों की संवेदनहीनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब देश
जवाहरबाग का आग में जल रहा था सांसद महोदया अपने संसदीय क्षेत्र की घटना से अनजान
सोशल मीडिया पर अपनी फ़िल्मी तस्वीरें साझा करने में मग्न थीं । भारत में मीडिया
कर्मियों को देवता जैसा रुतबा और स्थान प्राप्त है किन्तु सनसनी की शौकीन मीडिया
को भी इस हिंसक कारगुजारी में कुछ भी ख़बर लायक नहीं दिखा । जवाहरबाग जैसी सरकारी
सम्पत्ति पर होते रहे अवैध कब्जे और दहशतगर्दों के जमावड़े के प्रति आखिर
लोकतन्त्र में न्यायपालिका को छोड़कर तीनों स्तम्भ कैसे इतने लापरवाह हो सकते हैं ? यदि उच्च
न्यायालय का दबाव न होता तो शायद मथुरा का जवाहरबाग किसी बड़े राजनैतिक षड़यन्त्र
का शिकार होकर अस्तित्व विहीन हो जाता या किसी बड़े विप्लव का कारण बनता ।
गोकशी को कुटिल राजनीति
के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में कोई कोर – कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती जबकि
प्रदेश के कई हिस्सो में हजारों गो वंश पालकों द्वारा मरने को सड़कों पर छोड़ दिए
जाते हैं । ग़ाज़ियाबाद के बिसाहड़ा में भाजपा मुद्दा ढूंढ लेती है । सनसनी रूपी
मोतियाबिन्द की शिकार मीडिया, ट्विटर पर चल रहे वाक्यान्शो को बहस का मुद्दा बना
देता है लेकिन मथुरा दिखाई ही नहीं देता । पिछले कुछ समय से पुलिस के विरुद्ध
बढ़ती हिंसक घटनाएं भी कभी बड़ी बहस का मुद्दा नहीं बनी । आखिर कब तक निरीह पुलिय
वाले राजनीति की बलिवेदी पर अपनी क़र्बानी देते रहेंगे ? क्या पुलिस महज
राजनीतिक कठपुतली ही बनकर रह जाएगी ? समय – समय पर
राज्य सरकारों को खुफिया जानकारी देने वाली एजेन्सियों से मिले इनपुट के बाद भी
आखिर क्यों रामवृक्ष यादव को हल्के में लिया गया ? जब खुफिया
एजेन्सियों ने कथित सत्याग्रहियों के किसी छुपेएजेन्डे की ओर इशारा किया था और
जवाहरबाग के भीतर के छायाचित्र गृह सचिव (गोपन) को भजवा दिए थे तब हड़बड़ी में की
गयी पुलिसिया कार्यवाही संदेह के घेरे में घिर जाती है । कहीं जवाहरबाग के तार
राजनीति के वीभत्स गलियारों से तो नहीं जुड़े हैं ? उत्तर प्रदेश
वैसे भी राजनैतिक विकृतियों का गढ़ बनकर रह गया है । धर्म और स्वाधीनता संग्राम
सेनानियों की आड़ में इस तरह के खेल आज आम हो गये हैं । राजनीति चमकाने के लिए कभी
गो हत्या. कभी मन्दिर – मस्जिद, कभी धर्म परिवर्तन, कभी बेहूदा फ़तवे, कभी
राष्ट्रवाद और कभी योग क्रिया के नाम पर लोगों को लड़ाने का काम सुनियोजित तरीके
से किया जाता है । वास्तव में राजनीति नैतिकता की राह को त्यागकर अनैतिकता के
मार्ग पर चल पड़ी है, जहाँ मुकुल द्विवेदी जैसे जांबाज पुलिस अधिकारी मात्र
राजनैतिक प्यादा बनकर रह गये हैं । इन अफ़सरों के जीवन का मूल्य एक नौकरी और चन्द
लाख रूपये से ज्यादा कुछ नहीं । कब तक सन्तोष यादव जैसे समाज के रखवाले गोलियों का
शिकार बनते रहेंगे ? अब राजनैतिक हितों से आगे सोचने का वक्त आ गया
है । असली सहिष्णुता का अर्थ देश और समाज का कल्याण मात्र है, वहीं राजनैतिक
लिप्साएं असहिष्णुता का दूसरा नाम ।।