विकृतियाँ समाज की
मेरे मन की
बेचैनी को,
क्या शब्द बना
लिख सकते हो ?
तक़लीफ़ें
अन्तर्मन की,
क्या शब्दों मे
बुन सकते हो ?
लिखो हमारे मन
के भीतर,
उमड़ रहे
तूफ़ानों को ।
लिखो हमारे
जिस्मानी,
पिघल रहे
अरमानों को ।
प्यास प्यार की
लिख डालो,
लिख डालो जख़्मी
रूहें ।
लिखो ख़्वाहिशों
जो कच्ची हैं,
दाग-ए-दामन लिख
डालो ।
क्या दाग़दार इस
दुनियाँ की,
दाग़ी रस्में
लिख सकते हो ?
क्या समाज की
विकृतियों को,
शब्दों में कह
सकते हो ?
बर्बर रवायतों
की बेड़ी,
बदरंग जमाने का
चेहरा ।
घर के भीतर
हिंसक रहते,
बाहर दिखावटी
रहता पहरा ।
चेहरे की मेरे
मायूसी,
दर्द भरी चीखें
लिख दो ।
हर शय होता
अपमान लिखो,
भीतर की औरत
बाहर रख दो ।
ज़बरन लगते पहरे
लिख दो,
शीलहरण भी लिख
देना ।
यदि दहेज की आग
लिख सको,
जलती नवकलिका
लिख देना ।
हरे-भरे सुन्दर
उपवन,
बारिश की छम-छम
बूँदें ।
नारी मन भी करता
है,
वह भी नाचे गाए
कूदे ।
उसके हिस्से की
धूप लिखो,
उसके हिस्से की
छाँव लिखो ।
उसके मन की
प्यास लिखो,
उसके मन की आस
लिखो ।
यदि क़लम
तुम्हारी सच्ची हो,
तब तुम ऐसा कुछ
लिख डालो ।
जहाँ बसे
चहुंदिशि सच्चाई,
तुम ऐसी दुनियाँ
रच डालो ।।