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विकृतियाँ समाज की...

28 अप्रैल 2016

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विकृतियाँ समाज की


मेरे मन की बेचैनी को,

क्या शब्द बना लिख सकते हो ?

तक़लीफ़ें अन्तर्मन की,

क्या शब्दों मे बुन सकते हो ?

लिखो हमारे मन के भीतर,

उमड़ रहे तूफ़ानों को ।

लिखो हमारे जिस्मानी,

पिघल रहे अरमानों को ।

प्यास प्यार की लिख डालो,

लिख डालो जख़्मी रूहें ।

लिखो ख़्वाहिशों जो कच्ची हैं,

दाग-ए-दामन लिख डालो ।

क्या दाग़दार इस दुनियाँ की,

दाग़ी रस्में लिख सकते हो ?

क्या समाज की विकृतियों को,

शब्दों में कह सकते हो ?

बर्बर रवायतों की बेड़ी,

बदरंग जमाने का चेहरा ।

घर के भीतर हिंसक रहते,

बाहर दिखावटी रहता पहरा ।

चेहरे की मेरे मायूसी,

दर्द भरी चीखें लिख दो ।

हर शय होता अपमान लिखो,

भीतर की औरत बाहर रख दो ।

ज़बरन लगते पहरे लिख दो,

शीलहरण भी लिख देना ।

यदि दहेज की आग लिख सको,

जलती नवकलिका लिख देना ।

हरे-भरे सुन्दर उपवन,

बारिश की छम-छम बूँदें ।

नारी मन भी करता है,

वह भी नाचे गाए कूदे ।

उसके हिस्से की धूप लिखो,

उसके हिस्से की छाँव लिखो ।

उसके मन की प्यास लिखो,

उसके मन की आस लिखो ।

यदि क़लम तुम्हारी सच्ची हो,

तब तुम ऐसा कुछ लिख डालो ।

जहाँ बसे चहुंदिशि सच्चाई,

तुम ऐसी दुनियाँ रच डालो ।।

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रचनाएँ
राघव का रचना संसार : कुछ कविताएँ और कुछ लेख
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इस पुस्तक में कविता व लेख दोनों सम्मिलित हैं। यह भविष्य हेतु दिग्दर्शिका की भाँति है।
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प्रियतमकी यादपीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।दुःख का सागर धैर्य खो रहाव्यथा की सरिता उमड़ रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।अक्स तुम्हारा मुझ में बसताऔर हमारी साँसें तुझ में ।आह तुम्हारी मेरे प्रियतमबन शूल हृदय को छेद रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनय

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प्रियतम की याद

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प्रियतमकी यादपीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।दुःख का सागर धैर्य खो रहाव्यथा की सरिता उमड़ रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनयन नीर बन फूट रही है ।अक्स तुम्हारा मुझ में बसताऔर हमारी साँसें तुझ में ।आह तुम्हारी मेरे प्रियतमबन शूल हृदय को छेद रही है ।पीर तुम्हारे हृदय की प्रियतमनय

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मृत्तिका निर्मित दिए सेहै अमावस काँपती ।जलते हुए नन्हें दिए से डरकर निशा है भागती ।दीपक देह की अभि व्यंजना सेरात जगमग हो रही ।दीपकों के धर्म से राज भी अब जागती ।मृत्तिका निर्मित दिए सेहै अमावस काँपती । देह मानव की है माटीदीप जिससे है रचा ।स्नेह है उसमें भरा घृतजीवात्म

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आप के आशीर्वाद का आकांक्षी... http://www.unvanprkashan.com/details.php?book=28

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देश बेंच के खा डाला है नेता और दलालों ने ।जनता के घर डाका डाला मिलकर नमक हरामों ने ।खादी टोपी बर्बादी की बनी आज परिचायक है ।चोर उचक्के आज बन गए जनता के जन नायक हैं ।गाली – गोली किस्मत अपनी जीवन फँसा सवालों में ।देश बेंच के खा डाला है नेता और दलालों ने ।सरकारी जोंकें चिपकी हैं लोकतन्त्र के सीने में ।

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हे कृषक-पुत्र! हे लौह-पुरुष!

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<p><strong>——-राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’</strong></p> <p>जीवट जिनका लाखों जन को<br> सम्बल देता

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