उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह अव्यवस्था और नकल माफ़ियाओं की गिरफ़्त में है । प्राथमिक स्तर पर लचर व्यवस्था और अयोग्य शिक्षकों की फ़ौज भारत के स्वर्णिम भविष्य को दीमक की तरह चाट – चाट कर ख़त्म करने पर आमादा है । प्रतिवर्ष उत्तर प्रदेश में प्राथमिक / उच्च प्राथमिक स्तर पर सरकारी शिक्षा के लगभग 181500 संस्थानों में लगभग 36000000 छात्र – छात्राएं अध्ययन करते हैं । केन्द्र सरकार के अधीन संचालित नवोदय और केन्द्रीय विद्यालयों को छोड़कर उत्तर प्रदेश में अन्य विद्यालयों के 70 प्रतिशत विद्यालय गुणवत्ता के मामले में निचले पायदान पर खड़े हैं । केन्द्र सरकार के ही कस्तूरबा गाँधी आवासीय बालिका विद्यालयों का हाल तो और भी बुरा है । प्रतिवर्ष उत्तर प्रदेश सरकार की शैक्षिक उदासीनता प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर 50 लाख से ज्यादा छात्र – छात्राओं की प्रतिभा को निगलकर या नकल की महामारी से संक्रमित कर अंधकार के गर्त में गिरा देती है । शासन और प्रशासन शैक्षिक संहार के इस काले खेल में बराबरी की भागीदारी का निर्वाह करता दीखता है ।
माध्यमिक और विश्वविद्यालयी स्तर पर नकलची शिक्षा व्यवस्था शैक्षिक पंगुता को जन्म दे रही है । सरकारें भारत के निचले तबके के होनहारों को अपनी राजनैतिक बिसात का ऐसा मोहरा बना रहीं है जो कभी कुछ सोच ही नहीं पाएगा । कोल्हू के बैल की भाँति चक्की के चारों ओर बस घूमता ही रहेगा । सरकारें उसे भी एक अच्छा सा नाम दे देंगी । वह कहा तो दिव्यांग जाएगा किन्तु उसकी मानसिक दिव्यता नेताओं और नौकरशाहों की बन्धुआ होगी । फ़रवरी - मार्च माह में होने वाली उत्तर प्रदेश बोर्ड और विश्वविद्यालयी परीक्षाओं के लिए नकल की पूरी तरह बिसात बिछायी जा चुकी है । परीक्षा केन्द्रों के लिए जोड़-तोड़ का खेल पूरा होने के बाद नकल के लिए क्षेत्ररक्षण सजाया जा रहा है । अधिकारिओं से साँठ - गाँठ और परीक्षकों की खरीद - फ़रोख़्त इस खेल की साधारण सी चालें हैं । अपना नाम तक न लिख पाने वाले भी नकल की बहती नदिया में नहाकर यहाँ तर जाते हैं । क्षेत्रीय जनपदों को छोड़िए, कई प्रदेशों से छात्र यहाँ अपनी नौका पार लगाने के लिए आते हैं ।
उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में गत वर्ष मैंने सामाजिक संस्था महर्षि विवेकानन्द ज्ञानस्थली के संस्थापक आदित्य त्रिपाठी जी के साथ शैक्षिक शुचिता जाँचने के लिए एक सर्वे किया था । सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा की बात करते हैं । वर्तमान समय में हरदोई में 2467 प्राथमिक विद्यालय, 939 उच्च प्राथमिक विद्यालय और 48 अशासकीय सहायता प्राप्त जूनियर हाई स्कूल संचालित किए जा रहे हैं । सर्व शिक्षा अभियान द्वारा विद्यालयों को अनेक सुविधाएँ देने के पश्चात् उनकी शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही । ऐसे में जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन विद्यालयों की स्थापना हुई थी वह बेईमानी साबित हो रहा है ।
गुणवत्ताहीन शिक्षा के कारण लाखों बच्चों का भविष्य अंधकारमय है । सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत प्रत्येक बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले, इसीलिए हुई थी । परन्तु इसी सर्व शिक्षा अभियान ने परिषदीय विद्यालयों पर ऐसे ऐसे नियम थोपे जिन्होंने शिक्षा का बंटाधार करने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी है । स्कूल के शिक्षक को शिक्षक की जगह नौटंकी का जोकर बना दिया गया है । शिक्षक बच्चे को विद्यालय में शारीरिक रूप से दण्डित नहीं कर सकता । स्कूल से बच्चे का नाम नहीं काटा जा सकता । बच्चे का पढ़ाई के क्षेत्र में प्रदर्शन चाहे जैसा हो उसे अनुत्तीर्ण नही किया जा सकता । ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जब शिक्षक के पास कोई अधिकार नहीं है तो विद्यालय में उसकी प्रासंगिकता ही क्या है ? इस पर अत्यधिक ध्यान देने की जरुरत है ।
अब जब शिक्षा का अधिकार हमारे मूल अधिकारों में शामिल है तब शिक्षा की ऐसी दुर्दशा चिंतनीय है । शिक्षक जो इस अधिकार का मुख्य पोषक व संरक्षक है, आज बहुद्देशीय कर्मचारी बनकर रह गया है । एक तरफ आठ सौ से एक हजार घंटे शिक्षण के लिए आदेश पारित होता है वहीं दूसरी ओर इन्हीं अध्यापकों को 250 से 300 घण्टे जनगणना, मतगणना, मतदाता सूची पुनरीक्षण, इलेक्शन ड्यूटी जैसे अन्य अनेक कार्यों में अपनी सेवा देनी पड़ती है । अब ऐसे में किस तरह सुचारु शिक्षण व्यवस्था कायम रह सकती है । यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि शिक्षकों की संख्या छात्र - शिक्षक अनुपात के हिसाब से काफी कम है । यदि इसी तरह मूल अधिकारों पर अमल होता रहा है तो ऐसे अधिकार वर्तमान समय में किसी को भी नहीं चाहिए । जब अधिकार ही पैरों की बेड़ियां बनने लगे तो उन्हें काटकर फेंक देने में ही समाज की भलाई है ।
आज जिस प्रकार से बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है उससे शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी विसंगति उभर कर सामने आ रही है । बच्चे को शिक्षित करने के स्थान पर उसे साक्षर बनाने का प्रयास किया जा रहा है । हालात इस तरह से बिगड़ चुके हैं कि कक्षा 5 का बच्चा कक्षा 2 के सवाल भी बता पाने में असमर्थ है । इस प्रकार की शिक्षा से समाज में एक नए वर्ग का निर्माण हो रहा है जो न तो अनपढ़ है और न ही शिक्षित । यह वर्ग समाज में मद्धम विष बनता नज़र आ रहा है ।
माध्यमिक स्तर और महाविद्यालयी स्तर पर हालात भयावह हैं । शैक्षिक जालसाजी ने बड़े – बड़े घोटालों को पीछे छोड़ दिया है । कौशाम्बी, इलाहाबाद, अलीगढ़, वाराणसी, फ़ीरोज़ाबाद, देवरिया, उन्नाव, फ़र्रूखाबाद, सीतापुर हरदोई आदि जनपदों में शैक्षिक दुराचार चरम पर है । हरदोई जिले के विकास खण्ड बेंहदर, कछौना, सण्डीला, माधोगंज और मल्लावाँ नकल के गढ़ माने जाते हैं । इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा महाविद्यालय और परिषदीय विद्यालय हैं । गिनती के विद्यालयों को छोड़कर लगभग सभी विद्यालयों का हाल कमोबेश एक जैसा ही है । महाविद्यालयों की हालत तो और भी भयावह है । यहाँ श्रेणियों के आधार पर नकल का ठेका उठता है । जैसा सुविधा शुल्क उसी के अनुरूप श्रेणियाँ तय की जाती हैं । साधारण तौर पर नकल की दो पद्धतियों का सहारा लिया जाता है । पहला परीक्षार्थी अपनी-अपनी नकल सामग्री अपने साथ लेकर आएँ और प्रश्नपत्र का हल ढूंढकर लिखें और दूसरा सामूहिक रूप से एक कक्ष निरीक्षक मौखिक रूप से इमला की तरह बोलकर सभी को उत्तर लिखाता है । ग़ौर करने योग्य तथ्य यह है कि शासन और प्रशासन द्वारा अधिकृत जाँच दलों को पूरे कक्ष के परीक्षार्थियों के एक जैसे लिखे उत्तर दिखाई नहीं देते, न दिखाई देने का कारण परीक्षा केन्द्रों से मिलने वाली मोटी रकम है ।
करीब 70 फ़ीसदी महाविद्यालयों में और 50 फ़ीसदी माध्यमिक विद्यालयों में कक्षाओं का संचालन ही नहीं किया जाता है । जहाँ माध्यमिक विद्यालयों में नियमित शिक्षण का प्रतिशत 40 है वहीं महाविद्यालयों में यह 20 फ़ीसद भी नहीं रह जाता । माध्यमिक से उच्च शिक्षा संस्थानों तक की यदि बात करें तो 20 प्रतिशत से ज्यादा परीक्षार्थी नकल विहीन परीक्षाओं में सफल नहीं हो सकते । परीक्षाओं के दौरान भ्रष्टाचार का आलम यह है कि केन्द्राध्यक्ष बनने के लिए अध्यापकों में प्रतिस्पर्धा रहती है । विद्यालय संचालकों और अध्यापकों से बात करने पर पता चला कि 20000 रूपए से लेकर कई लाख रूपए केन्द्राध्यक्षों को दिए जाते हैं । परीक्षा जाँच दल प्रत्येक ऐसे विद्यालय से औसतन 20000 रूपए माध्यमिक स्तर पर और 50000 रूपए महाविद्यालय स्तर पर वसूलते हैं ।
नकल का यह गोरखधंधा उत्तर प्रदेश के 70 फ़ीसदी जिलों में महामारी की भाँति फैला हुआ है । अनुमान के मुताबिक उत्तर प्रदेश में नकल का यह काला साम्राज्य 10,000 करोड़ से भी ज्यादा का है । इसमें ऊपर से नीचे तक हजारों जिम्मेदार बेईमानी में संलिप्त हैं प्रशासनिक हाक़िम जिन पर नकल रोकने की नैतिक एवं वैधानिक जिम्मेदारी है, आज नकलची व्यवस्था के पहरुए बने दीखते हैं । नाम न उजागर करने की शर्त पर एक विद्यालय के प्रबन्धक ने बताया कि परीक्षा केन्द्र बनवाने के लिए 50 हजार से 2 लाख रूपए की मांग की जाती है । प्रशासनिक अमले के लिपिक से लेकर विभागीय मन्त्री तक इस काले व्यवसाय में भागीदार हैं । पूरे के पूरे परीक्षा केन्द्र के परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिकाएँ एक जैसे उत्तरों वाली होती हैं । यहाँ तक कि एक जैसी शब्दावली भी निरीक्षकों व परीक्षको को दिखायी नहीं देती है । उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने और बताने वाले मोतियाबिन्द के शिकार हैं । एक कटु सत्य यह भी है कि आज सरकारी स्कूलों में सबसे ज्यादा विद्यार्थी ग़रीब तबके के हैं । गुणवत्तायुक्त शिक्षा तो दूर यहाँ साधारण शिक्षा भी मृतप्राय दीखती है । प्रतिवर्ष परीक्षाओं के समय मीडिया द्वारा दिखावटी हो - हल्ला मचाया जाता है और चाँदी का जूता मिलने के बाद यह सब शान्त हो जाता है । स्थानीय मशीनरी भी पूरी तरह रिमोट संचालित नज़र आती है । कागज़ो पर तेज़ी से साक्षर होता उत्तर प्रदेश वास्तव में ढोल सरीखा अन्दर से पूर्णत: खोखला है और दिन – ब - दिन यह कमज़ोर होता जा रहा है । वह दिन दूर नहीं जब यह नकल और सरकारी उदासीनता का गठजोड़ शिक्षा को लील जाएगा ।