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ravi bhujang की डायरी

ravi bhujang

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ravi bhujang ki diary

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पुस्तक के भाग

1

प्रेम कहां से लाऊ मैं!

29 दिसम्बर 2015
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गीत भले बीन सावन के गाऊ मैंसंग तेरे पहली प्रीत गुनगुनाऊ मैंपृथ्वी चक्र सा प्रेम कहा से लाऊ मैंनौ लखा तुझपर हो जाऊ मैं,संजीवनी रस सा तेरे बालो पर हो जाऊ घागर कमर पर,भाग्य रंग, सा लगु तेरे गालो पर बीन ईच्छा का देह कहा से लाऊ मैंपृथ्वी चक्र सा प्रेम कहा से लाऊ मैंमैं हथेली समझ के दरीयां में योवन कंठ पे

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कविता अनुभव

3 जनवरी 2016
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मेरे शब्दों के आंचल में,राधा भी है मीरा भी है!मन भावन रुप रस कान्हा के, मेरे अधरों पर गाते है!शिश प्राण अर्पण तुझको,हो जगत जगती माँ! मेरे कंठ काव्य अनुभव में,एक बूंद सागर विराजे है! 

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नदी

4 जनवरी 2016
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नदी बह जाती,किनारे से बहकर आते आंसू'ओ में!बादल डमरु झटकता,लय टपकती बुंद रुपी!किनारे से कोई लौट जाता, पलकें पोछते हुएं!

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कल्पना

5 जनवरी 2016
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तुम चांद और आफ़ताफ की बातें करते हो, धरती पर ख़ुद का घर है के नही,युं तो तुमने कल्पनाओ में खुब चावल के दानो से मृगनयनी की मुरते बनाई होगी, क्या तुम मृगनयनी की आँखो मे कभी गुम हुए हो,तुमने कभी परीयों को आंगन लिपते लिखा है, तुमने कभी कीसी लड़की को दो के पहाड़े की तरह भोली-भाली लिखा है, या एक से पांच त

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हम प्रेेम को कहीं भी जाकर प्राप्त करते है, पढ़ता हुं!

9 फरवरी 2016
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प्यार कि भाषा निरंतर,उपनिषद् रचती रही! इस धरा पर भी हमीं है, आसमां में भी हमीं है! हर कहानी जब हमीं पर, शुन्य से युँ अंक बनती! तब समर्पण में हमीं है, झुठी ज़ीद में भी हमीं है! देह की नज़रे मचलकर,रुह को बे-होश करदे! रुह फिर होके मदमस्त, देह को बा-होश करदे! बाग़ कि खुशबु हमीं है,हमीं हुए है घोर पवन! फ

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प्रेम रुप

3 मई 2016
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सुगंध हो तुम लोकगीत की,लोकगीत जिसमें पक्ष प्रेम का,प्रेम में बसी हैं प्रीत जहां की प्रीत में रुह-देह अर्पण करलो,प्रेम रुप ईश्वर का दर्शन करलो! मिल जाएगा विश्व सूंदरी सा तन, महकने लगेगा फिर चंदन सा मन,मन में बसा लो कोई योवन सुहाना,रुप न चूरा ले कोई अल्हड़ तुम्हारा, रुप-तन-मन को समर्पण करलो,प्रेम रुप

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एक गीत

15 अक्टूबर 2016
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प्यार भरी हैं नज़र तुम्हारी, रातें आंखों में समाई, माथे पर जैसे सृष्टि, इतनी सोच में गहराई, देखो सबकी काया-काया दर्पण हैं,प्रेम नहीं है तो कहों क्या जीवन हैं! रुप, कि आगे पानी-पानी हो जाएं जवानी,बालपन कि पुस्तक में परियों जैसी रानी! जिनपे चलते जाएं, वो राहें पावन हो जाएं, पत्थर-पत्थर मांगे पानी,मिट्

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तुम क्या हो

15 मई 2017
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कभी बनारस की सुबह बन जाती हो। तो भोपाल की शाम हो जाती हो। तुम रास्तें के दृश्य हो या, दोनों पर एक आसमां। तुम चेतन की किताब का किरदार तो नहीं हो, तुम जो हो हमेशा हो। चार कोनो में नहीं होती तुम, तुमने ही तुम्हें रचा हैं। अब प्रेम का क्या वर्णन करूँ, मेरा प्रेम तो तुम्ह

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देखकर इन नयन,रूप,श्रृंगार को,

18 मार्च 2018
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देखकर इन नयन,रूप,श्रृंगार को,रात अमावस भरी, पूर्णिमा हो गई।पास हो तुम मेरे, दूर भी हो मगर,मैं धरा, और तुम आसमां हो गई।- - पूछना तुम ज़रा आईने से कभी,रूप कैसा लगा ये तुम्हारा उसे।तुम्हारे ही पहलू में रहता है जो,बिंदियों का है बस सहारा उसे।सामने हो मगर हो नहीं भाग्य में,आईना कृष्ण, तुम राधिका हो गईदेखक

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