देखकर इन नयन,रूप,श्रृंगार को,
रात अमावस भरी, पूर्णिमा हो गई।
पास हो तुम मेरे, दूर भी हो मगर,
मैं धरा, और तुम आसमां हो गई।
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पूछना तुम ज़रा आईने से कभी,
रूप कैसा लगा ये तुम्हारा उसे।
तुम्हारे ही पहलू में रहता है जो,
बिंदियों का है बस सहारा उसे।
सामने हो मगर हो नहीं भाग्य में,
आईना कृष्ण, तुम राधिका हो गई
देखकर इन नयन...
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