प्यार कि भाषा निरंतर,
उपनिषद् रचती रही!
इस धरा पर भी हमीं है,
आसमां में भी हमीं है!
हर कहानी जब हमीं पर,
शुन्य से युँ अंक बनती!
तब समर्पण में हमीं है,
झुठी ज़ीद में भी हमीं है!
देह की नज़रे मचलकर,
रुह को बे-होश करदे!
रुह फिर होके मदमस्त,
देह को बा-होश करदे!
बाग़ कि खुशबु हमीं है,
हमीं हुए है घोर पवन!
फूल पर भँवरें भी हम है,
फूल के रस में भी हम है!
प्यार कि भाषा निरंतर,
उपनिषद् रचती रही!
इस धरा पर भी हमीं है,
आसमां में भी हमीं है!