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हम प्रेेम को कहीं भी जाकर प्राप्त करते है, पढ़ता हुं!

9 फरवरी 2016

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प्यार कि भाषा निरंतर,

उपनिषद् रचती रही! 

इस धरा पर भी हमीं है, 

आसमां में भी हमीं है! 


हर कहानी जब हमीं पर, 

शुन्य से युँ अंक बनती! 

तब समर्पण में हमीं है, 

झुठी ज़ीद में भी हमीं है! 


देह की नज़रे मचलकर,

रुह को बे-होश करदे! 

रुह फिर होके मदमस्त, 

देह को बा-होश करदे! 


बाग़ कि खुशबु हमीं है,

हमीं हुए है घोर पवन! 

फूल पर भँवरें भी हम है, 

फूल के रस में भी हम है! 


प्यार कि भाषा निरंतर,

उपनिषद् रचती रही! 

इस धरा पर भी हमीं है, 

आसमां में भी हमीं है!


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तुम चांद और आफ़ताफ की बातें करते हो, धरती पर ख़ुद का घर है के नही,युं तो तुमने कल्पनाओ में खुब चावल के दानो से मृगनयनी की मुरते बनाई होगी, क्या तुम मृगनयनी की आँखो मे कभी गुम हुए हो,तुमने कभी परीयों को आंगन लिपते लिखा है, तुमने कभी कीसी लड़की को दो के पहाड़े की तरह भोली-भाली लिखा है, या एक से पांच त

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हम प्रेेम को कहीं भी जाकर प्राप्त करते है, पढ़ता हुं!

9 फरवरी 2016
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प्यार कि भाषा निरंतर,उपनिषद् रचती रही! इस धरा पर भी हमीं है, आसमां में भी हमीं है! हर कहानी जब हमीं पर, शुन्य से युँ अंक बनती! तब समर्पण में हमीं है, झुठी ज़ीद में भी हमीं है! देह की नज़रे मचलकर,रुह को बे-होश करदे! रुह फिर होके मदमस्त, देह को बा-होश करदे! बाग़ कि खुशबु हमीं है,हमीं हुए है घोर पवन! फ

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