निःशुल्क
तन्हाइयों ने हमे कुछ इस कदर प्यार किया है, कि साथ है वो मगर फिर भी दूरियां बहुत है।
ताज्जुब तो नही हो रहा है तेरे बदल जाने से । हां ! अफसोस जरा सा हो रहा है वहम ए मोहब्बत टूट जाने से ।
हम दोनो की मोहब्बत में बस फर्क इतना था । वो अहम में कर रहे थे हम वहम में कर रहे थे ।
उन्हे तो फुरसत ही नही मेरी खामियां निकालने से। मोहब्बत क्या खाक करते ।
मैंने भी आजमाया है तुम्हे कई बार। कभी चुप रहकर कभी कुछ कहकर, कभी यूं ही बेवजह तुमसे नाराज होकर, पर तुमने कभी पूछी ही नही वजह इन सब की, पूछते भी कैसे? तुम्हे फर्क पड़ा है क्या कभी मेरी खामोशी से।
जैसे गीले बालों को सुलझाने में, उलझ जाती है अक्सर उंगलियां । ठीक वैसे ही जब रिश्ते नाजुक दौर में हो तो देना वक्त उन्हें समझने और संभलने का । Rekha.............
कितना आसान है ना तुम्हारे लिए , ये कह देना की जाना है तो चली जाओ। पर क्या देखा है तुमने कभी, समंदर से मिलकर नदी को अलग होते।
छोटी छोटी बातें ही अक्सर बड़े गहरे घाव देते हैं। रेत की ज़मी पर कांटेदार पेड़ भी छांव देते हैं। भूलने को तो भूल जाए सब कुछ पर सच है कि। जख्म ही अक्सर हमें संवार देते हैं। दिखती नही चोट मगर छलनी कर
दिल से दिल की दूरी बहुत है। सुना है इश्क में मजबूरी बहुत है। हम जिसके लिए जां तक दे बैठे। लोगो से सुना है उनके लिए ही हम जरूरी नहीं है।
प्रेम का आखिरी पड़ाव है अकेलापन .... जहां से लौट कर फिर से भीड़ में आना मुश्किल है।