एक राजा था जिसे राज भोगते काफी समय हो गया था बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार मे उत्सव रखा और अपने गुरु तथा मित्र देश के राजाओ को भी सादर आमंत्रित किया ।उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुला भेजा ।
राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्राए अपने गुरु को दी ताकि नर्तकी के अच्छे गीत नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सके ।
सारी रात नृत्य चलता रहा । सुबह होने वाली थीं, नर्तकी ने देखा की मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है उसको जगाने के लियें नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा ,
"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिहाई ।
एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए।"
अब इस दोहे का अलग अलग व्यक्तियों ने अलग अलग अपने अपने अनुरूप अर्थ निकाला ।
तबले वाला सतर्क हो बजाने लगा ।
जब ये बात गुरु ने सुनी, गुरु ने सारी मोहरे उस मुज़रा करने वाली को दे दी ।
वही दोहा उसने फिर पढ़ा तो राजा के लड़की ने अपना नवलखा हार दे दिया ।
उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के लड़के ने अपना मुकट उतारकर दे दिया ।
वही दोहा दोहराने लगी राजा ने कहा बस कर एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।
जब ये बात राजा के गुरु ने सुनी गुरु के नेत्रो मे जल आ गया और कहने लगा, " राजा इसको तू वेश्या न कह, ये अब मेरी गुरू है।
इसने मेरी आँखे खोल दी है कि मै सारी उम्र जंगलो मे भक्ति करता रहा और आखरी समय मे मुज़रा देख कर अपनी साधना नष्ट करने आ गया हूँ , भाई मै तो चला !
राजा की लड़की ने कहा, " आप मेरी शादी नहीं कर रहे थे, आज मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । इसनें मुझे सुमति दी है कि कभी तो तेरी शादी होगी । क्यों अपने पिता को कलंकित करती है ? "
राजा के लड़के ने कहा, " आप मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आपके सिपाहियो से मिलकर आपका क़त्ल करवा देना था । इसने समझाया है कि आखिर राज तो तुम्हे ही मिलना है । क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सर लेते हो ?
जब ये बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हुआ क्यों न मै अभी राजकुमार का राजतिलक कर दूँ , गुरु भी मौजूद है ।
उसी समय राजतिलक कर दिया और लड़की से कहा बेटी , " मैं जल्दी ही योग्य वर देख कर तुम्हारा भी विवाह कर दूँगा। "
यह सब देख कर मुज़रा करने नर्तकी ने कहा की,
मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, मै तो ना सुधरी। आज से मै अपना धंधा बंद करती हूँ ।
हे प्रभु! आज से मै भी तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।
समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती। एक दोहे की दो लाईनों से भी ह्रदय परिवर्तन हो सकता है ,केवल थोड़ा धैर्य रख कर चिंतन करने की आवश्यकता है।
"प्रशंसा" से "पिंघलना" मत,
"आलोचना" से "उबलना" मत,
निस्वार्थ भाव से कर्म करते रहो ,
क्योंकि *इस "धरा" का, इस "धरा" पर,सब "धरा रह जाऐगा ।*