संघर्ष की सीमा से मेरा धैर्य जब टकरा गया
ये मन जो सहसा उठ रहे विद्रोह से थर्रा गया
प्रश्न था मेरी विवशता से यूहीं उपजा हुआ
की है यही जीवन मेरा संघर्ष कर लड़ता हुआ
क्या है अटल सा सत्य या है मेरी विडंबना
अनवरत चलते हुए जब सांस भी ले पाऊं ना?
फिर मुझे झकझोरती आती दिखी नियति मेरी
दृढ़ता भरी दहाड़ थी ,सिमटी थी धूमिल सी छवि
अट्टहास कर कहती गई चलते हुए :
"जो प्रश्न है तेरा यहां उपहास है मेरे लिए
जीवन है जब संघर्ष तो है मृत्यु क्या तेरे लिए
संघर्ष की लपटों में खुद को जलता पाएगा
उतना ही मेरा रंग कुंदन सा उजला आएगा
ये आग ऐसी है कि इसमें भस्म कोई न हुआ
इतिहास के पन्नों में जब पत्थर कोई हीरा हुआ
इस समय की रेत को अपने स्वेद से तू बांध ले
फिर बढ़ा के पांव हर संकल्प को तू नाप ले
संघर्ष तेरा सारथी , संघर्ष ही प्रारब्ध हो
तो इस धरा में जागता तू सूरमा विशेष हो... तो इस धरा में जागता तू सूरमा विशेष हो..."
- अम्बाली