प्रारम्भ एक शुन्य से और अन्त भी एक शुन्य है,
मध्य सारी सृष्टी है प्रतिरूप सिर्फ एक है|
योग सारा शुन्य है और रिक्तीया भी शुन्य है,
शेष भी एक शुन्य है पर भाव सिर्फ एक है|
तिमीर भरे इक प्रागंण मे शून्य की अविरल धारा है
इक बूदं छिटक धारा से, हुतात्म जगत मे आती है
वो साक्छी बनी दो जीवो की, पौरुष और प्रकृति की,
करूणा और अनुराग रुपी , वो साक्छी बनी दो भावो की|