मैं जाने किस मुकम्मल सुकून की तलाश में था।
जबकि सुकून भी खुद परिंदगी की प्यास में था।
जबसे जिंदगी में नई नई ख्वाहिशें चुनने लगा हूं।
मैं खुद को ख्वाहिशों के माफिक बुनने लगा हूं।
अब तो ये ख्वाहिशें ही हमको डंसने लगी हैं।
नागफनी के माफिक बेइंतहा बढ़ने लगीं है।
जिंदगी ख्वाहिशों के जाल में फसने लगी हैं।
ये ख्वाहिशें भी आज हम पर हंसने लगी हैं।
कब न जाने इन ख्वाहिशों से निकल पाएंगे।
जिंदगी में ख्वाहिशों से बढ़कर सुकून पाएंगे।
सुकून की ख्वाहिश मेरे अंग अंग में समाई है।
बस सुकून ही जिंदगी की असली कमाई है।
Poet~~Ashutosh Rajoriya