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ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ

29 अक्टूबर 2015

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ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ

फूलों में भी शोख़ी तो है किसको मगर तुझ सा कहूँ


गेसू उड़े महकी फ़िज़ा जादू करें आँखे तेरी

सोया हुआ मंज़र कहूँ या जागता सपना कहूँ


चंदा की तू है चांदनी लहरों की तू है रागिनी

जान-ए-तमन्ना मैं तुझे क्या क्या कहूँ क्या न कहूँ


                                                                        जनाब सैयद मोहम्मद बशीर बद्र साहब 

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बशीर बद्र

29 अक्टूबर 2015
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हमारा दिल सबेरे का सुनहरा जाम हो जाएचिरागों की तरह आँखें जले जब शाम हो जाएमैं खुद भी एतिहातन उस गली से कम गुज़रता हूँकोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाएअजब हालत थे यूँ दिल का सौदा हो गया आखिरमोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाएसमुन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमकोहवायें तेज़ हों और कश्तियों मे

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बाशीर बद्र साहब की एक और गजल

29 अक्टूबर 2015
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सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहींमांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहींदेखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझेमेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहींजिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भरभेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहींइक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तकआँखों से की बातें

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एक शाम बाशीर बद्र साहब के नाम

29 अक्टूबर 2015
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आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखाकिश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखाबेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगेइक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखाजिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र हैआँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखाये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैंतुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखापत्थर

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बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

29 अक्टूबर 2015
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मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला ख़ुदा की इतनी

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लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में

29 अक्टूबर 2015
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लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने मेंतुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने मेंऔर जाम टूटेंगे, इस शराबख़ाने मेंमौसमों के आने में, मौसमों के जाने मेंहर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैंउम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने मेंफ़ाख़्ता की मजबूरी ,ये भी कह नहीं सकतीकौन साँप रखता है, उसके आशियाने मेंदूसरी कोई लड़क

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अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा

29 अक्टूबर 2015
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अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगामगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगातुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगामगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगाना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक होमकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगामैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँअगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगातुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जै

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यूं ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो

29 अक्टूबर 2015
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यूं ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करोवो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करोकोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक सेये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करोअभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा, कोई जाएगातुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करोमुझे इश्तिहार-सी

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परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता

29 अक्टूबर 2015
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परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहताकिसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहताबडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखनाजहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता  हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों मेंअजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला हैहमारे शहर

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घर की दहलीज़ पे डरते हुए हम आते हैं

29 अक्टूबर 2015
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कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैंशाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैंदिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहींइस के दरवाज़े पे सौ अहले करम आते हैंमुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लियेकभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैंमैं ने दो चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिनशहर के तौर तरीक़े मुझे कम आते हैंख़ूबसूरत स

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बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

29 अक्टूबर 2015
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न जी भर के देखा न कुछ बात कीबड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात कीकई साल से कुछ ख़बर ही नहींकहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात कीउजालों की परियाँ नहाने लगींनदी गुनगुनाई ख़यालात कीमैं चुप था तो चलती हवा रुक गईज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात कीसितारों को शायद ख़बर ही नहींमुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात कीमुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब

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ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ

29 अक्टूबर 2015
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ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँफूलों में भी शोख़ी तो है किसको मगर तुझ सा कहूँगेसू उड़े महकी फ़िज़ा जादू करें आँखे तेरीसोया हुआ मंज़र कहूँ या जागता सपना कहूँचंदा की तू है चांदनी लहरों की तू है रागिनीजान-ए-तमन्ना मैं तुझे क्या क्या कहूँ क्या न कहूँ                                           

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हाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं

29 अक्टूबर 2015
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मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैंहाये मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैंहम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारोठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैंये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दाहम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैंउम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा कीजेवक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं         

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लिपट के चराग़ों से वो सो गये

29 अक्टूबर 2015
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मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहेमुक़द्दर में चलना था चलते रहेकोई फूल सा हाथ काँधे पे थामेरे पाँव शोलों पे चलते रहेमेरे रास्ते में उजाला रहादिये उस की आँखों के जलते रहेवो क्या था जिसे हमने ठुकरा दियामगर उम्र भर हाथ मलते रहेमुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ीकिराये के घर थे बदलते रहेसुना है उन्हें भी हवा लग गईहवाओं

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बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

29 अक्टूबर 2015
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सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों मेंबस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों मेंपहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखाहम जवाब क्या देते खो गये सवालों मेंयूं किसी की आँखों में सुबह तक अभी थे हम जिस तरह रहे शबनम फूल के पियालों में रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ाजैसे कोई चुटकी ले नर्म नर्म गालों मेंमेरी आ

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मेरे साथ तुम भी दुआ करो यूँ किसी के हक़ में बुरा न हो

29 अक्टूबर 2015
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मेरे साथ तुम भी दुआ करो यूँ किसी के हक़ में बुरा न होकहीं और हो न ये हादसा कोई रास्ते में जुदा न होमेरे घर से रात की सेज तक वो इक आँसू की लकीर हैज़रा बढ़ के चाँद से पूछना वो इसी तरफ़ से गया न होसर-ए-शाम ठहरी हुई ज़मीं, आसमाँ है झुका हुआइसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले कर खड़ा न होवो फ़रिश्ते आप ह

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वो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियाँ न हों

29 अक्टूबर 2015
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वो शाख़ है न फूल, अगर तितलियाँ न होंवो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियाँ न होंपलकों से आँसुओं की महक आनी चाहिएख़ाली है आसमान अगर बदलियाँ न होंदुश्मन को भी ख़ुदा कभी ऐसा मकाँ न देताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियाँ न होंमै पूछता हूँ मेरी गली में वो आए क्योंजिस डाकिए के पास तेरी चिट्ठियाँ न होंबशीर बद्र  स

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लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे

29 अक्टूबर 2015
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वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब* समझते होंगेचाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगेइतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरीलोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगेमैं समझता था मुहब्बत की ज़बाँ ख़ुश्बू हैफूल से लोग इसे ख़ूब समझते होंगेभूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वालेआज के प्यार को मायूब* समझते होंगेबशीर बद्र  साहब 

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है अजीब शहर कि ज़िंदगी, न सफ़र रहा न क़याम है

30 अक्टूबर 2015
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है अजीब शहर कि ज़िंदगी, न सफ़र रहा न क़याम हैकहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज सी शाम हैकहाँ अब दुआओं कि बरकतें, वो नसीहतें, वो हिदायतेंये ज़रूरतों का ख़ुलूस है, या मतलबों का सलाम हैयूँ ही रोज़ मिलने कि आरज़ू बड़ी रख रखाव कि गुफ्तगू ये शराफ़ातें नहीं बे ग़रज़ उसे आपसे कोई काम है वो दिलों में आग लगायेगा

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भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा

30 अक्टूबर 2015
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भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगाघर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगाफिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शामजब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगाआँसू को कभी ओस का क़तरा न समझनाऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगाइस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखेंबाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगाये सोच लो अब आख़ि

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भूल शायद बहुत बड़ी कर ली

30 अक्टूबर 2015
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भूल शायद बहुत बड़ी कर लीदिल ने दुनिया से दोस्ती कर लीतुम मुहब्बत को खेल कहते होहम ने बर्बाद ज़िन्दगी कर लीउस ने देखा बड़ी इनायत सेआँखों आँखों में बात भी कर लीआशिक़ी में बहुत ज़रूरी हैबेवफ़ाई कभी कभी कर लीहम नहीं जानते चिराग़ों नेक्यों अंधेरों से दोस्ती कर लीधड़कनें दफ़्न हो गई होंगीदिल में दीवार क्य

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गाँव मिट जायेगा शहर जल जायेगा

30 अक्टूबर 2015
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गाँव मिट जायेगा शहर जल जायेगाज़िन्दगी तेरा चेहरा बदल जायेगाकुछ लिखो मर्सिया, मसनवी या ग़ज़लकोई काग़ज़ हो पानी में गल जायेगाअब उसी दिन लिखूँगा दुखों की ग़ज़लजब मेरा हाथ लोहे में ढल जायेगामैं अगर मुस्कुरा कर उन्हें देख लूँक़ातिलों का इरादा बदल जायेगाआज सूरज का रुख़ है हमारी तरफ़ये बदन मोम का है पिघल ज

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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

2 जुलाई 2016
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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलेंढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलेंग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लोनश्श

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अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं

2 जुलाई 2016
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अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैंकुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैंअब ये भी नहीं ठीक के हर दर्द मिटा देंकुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैंआँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगेये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैंदेखूं तेरे हाथों को तो लगता है, तेरे हाथमंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैंये इ

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