जैसे ही आप 'अजीम प्रेमजी' का नाम सुनते हैं, आपके जेहन में सबसे पहले जो धारणा उभरकर सामने आती है, वो है एक ऐसे महान् कु-लीन व्यक्ति की, जो व्यापारिक जगत् के साथ-साथ परोपकार की दुनिया में भी सीना तानकर खड़ा है। यहाँ तक कि वे लोग भी, जो परोपकार में विश्वास करते हैं, वे भी उनके द्वारा किए जानेवाले दान की सीमा को देखकर ईर्ष्या से घिर जाते हैं। वे देश के उन गिने-चुने मुसलमानों में से एक हैं, जिन्होंने आस्था, धर्म, क्षेत्र या दर्शन की किसी भी सीमा से परे होकर खुद को व्यापक जनसमूह का लाड़ला बना लिया है। हालाँकि परोपकार को धन के बिना किया जाना बिल्कुल नामुमकिन है और इसे नियत योजना और निष्पादन की कठिन राह के जरिए अर्जित करना पड़ता है। अजीम के पिता मोहम्मद हुसैन प्रेमजी ने व्यापार के क्षेत्र में एक शुरुआत की थी। वे वर्ष 1940 में एक ऐसे स्थान की तलाश में थे, जहाँ वे वनस्पति तेल तैयार करने का कारखाना स्थापित कर सकें, जो बाद में 'डालडा' के नाम से मशहूर हुआ और घर-घर में पहचाना गया। भारत में 'डालडा ब्रांड वनस्पति तेल का पर्याय बन गया है और अगर आप एक किराने की दुकान के बाहर खड़े हो जाएँ तो आप यह देखकर हैरान रह जाएंगे कि अगर किसी उपभोक्ता ने 'डालडा' की माँग की है और दुकानदार उस ग्राहक को कोई और ब्रांड भी थमा देता है, तो भी उपभोक्ता उसे लेकर खुशी-खुशी चला जाता है। इसके अलावा मैंने लोगों को 'रथ डालडा' माँगते हुए भी देखा है, जो रथ ब्रांड' का वनस्पति तेल है। ऐसा तब होता है, जब किसी चीज की दुकानदारी इतने बड़े स्तर पर की जाती है कि वो उस उत्पाद का पर्याय बन जाती है। जेरॉक्स और कोलगेट जैसे कई अन्य उत्पादों के साथ भी बिल्कुल यही स्थिति रही है।
हमें यहाँ पर यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि यह ऐसा युग था, जब ब्रिटिश शासन अपने अंतिम चरण में था और द्वितीय विश्वयुद्ध अपने पूरे जोरों पर लड़ा जा रहा था, जिसमें दुनिया के अधिकांश देश शामिल थे। युद्ध की माँगों के मद्देनजर, जिसमें अंग्रेजों ने भारत को बिना भारतीयों और भारतीय राजनेताओं की रजामंदी के एक पक्ष बना दिया था, अंग्रेजों ने कई अर्थों में भारत का शोषण करने का पूरा प्रयास किया। उस स्थिति के बावजूद, एम.एच. प्रेमजी अपने वनस्पति तेल के कारखाने को स्थापित करने के लिए एक समुचित स्थान की तलाश कर रहे थे, क्योंकि अंग्रेजों की नीतियों के चलते उनके चावल के कारोबार को काफी नुकसान उठाना पड़ा था और वे एक अलग क्षेत्र में अपने पाँव जमाना चाहते थे। एम.एच. प्रेमजी के पिता एक नामचीन चावल व्यापारी थे और एम. एच. प्रेमजी इस व्यवसाय में उनके साथ जुड़ गए, हा- लाँकि अंग्रेजों की कुछ नीतियों के चलते उन्होंने वनस्पति तेल को चुना था, क्योंकि देसी घी को तलाशना और खरीदना आम आदमी के वश में नहीं था और वनस्पति तेल खाना पकाने में बिल्कुल वही कार्य करता था और खाने के अधिकांश स्वाद और सुगंध को भी बनाए रखता था। चूँकि इसकी कीमत काफी कम थी, इसलिए यह गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिए वहन करने योग्य हो गया।
आखिरकार, एम.एच. प्रेमजी ने महाराष्ट्र के दूर-दराज के जलगाँव जिले के एक छोटे से गाँव अमलनेर का चुनाव किया। यह बोरी नदी के मुहाने पर स्थित है। आज यह गाँव एक छोटे से संपन्न शहर में तब्दील हो चुका है, जहाँ पर साधारण लोग रहते हैं और यहाँ पर कुछ आधुनिक सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं। थोड़े दिन हुए हैं, जब रहन-सहन के आधुनिक तौर-तरीकों ने इस शहर के दरवाजों पर दस्तक देनी प्रारंभ कर दी है।
अपने व्यवसाय के जमने और बढ़ने के साथ, एम. एच. प्रेमजी ने 'वेस्टर्न इंडियन वेजिटेबल प्रोडक्ट्स लिमिटेड' के नाम से अपनी कंपनी को स्थापित किया, जो "सनफ्लॉवर वनस्पति' के ब्रांड नाम के साथ खाना पकाने का तेल तैयार करता था और इसके अलावा खाना पकाने के तेल के निर्माण से बचनेवाले अवशेषों से 787' के नाम से एक कपड़े धोनेवाले साबुन के निर्माण का रास्ता खुला। यहाँ पर यह बताना भी बेहद आवश्यक है कि यह उन चुनिंदा कंपनियों में से एक थी, जो प्रारंभ में भारतीय शेयर बाजार में पंजीकृत थी। इसके 100 रुपए के अं- कित मूल्य वाले 17,000 शेयर आवंटित किए गए, जिसमें से आधे तो कंपनी के निदेशकों को आवंटित किए गए थे, जबकि शेष को आम लोगों को आवंटित किया गया था। उन दिनों में, 100 रुपए एक बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी, विशेषतौर पर अमलनेर जैसे एक छोटे से गाँव के लोगों के लिए। इसके बावजूद कई ग्रामीणों ने कंपनी में निवेश किया, क्योंकि वे कंपनी के साथ भावनात्मक रूप में जुड़े हुए थे। इसके अलावा, ग्रामीण कंपनी के साथ इसलिए भी जुड़ाव महसूस करते थे, क्योंकि कंपनी उनके कृषि उत्पादों को अच्छी कीमत में खरी- दती थी और साथ ही गाँव के रहनेवाले कई लोग कंपनी के कारखाने में ही संतोषजनक पारिश्रमिक पर नियुक्त किए गए थे। इसके साथ ही, स्थानीय व्यापारियों ने भी खासा मुनाफा कमाया था, क्योंकि उन्होंने कारखाने के उत्पादों को अच्छे लाभ पर बेचा था। इसके अलावा, प्रेमजी द्वारा प्रदर्शित सद्भावना ने स्थानीय आबादी के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किया था और एम. एच. प्रेमजी को मोहम्मद सेठ' कहकर बुलाया जाता था। इस कंपनी को एक ऐसे समय में स्थापित किया गया था, जब अमलनेर के लोगों को इस बात की जानकारी न के बराबर थी कि एक लिमिटेड कंपनी का मतलब क्या है? इसके बावजूद उन्होंने गाँव में स्थापित की गई साख के चलते कंपनी के शेयरों में निवेश किया। उन्होंने शेयरों में अच्छा-खासा निवेश किया था, जबकि ग्रामीणों को इसकी बहुत कम जानकारी थी कि वे इन शेयरों के जरिए क्या कर सकते हैं, लेकिन वे सभी प्रेमजी के साथ अच्छा संबंध रखते थे। समय के साथ, एम. एच. प्रेमजी भारत में एक प्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति बन गए थे और वे उन चुनिंदा मुसलमानों में से एक थे, जिनकी अत्यधिक प्रशंसा की जाती थी।
देश 1947 में एक बहुत बड़ी क्रांति का साक्षी बनने जा रहा था, जब देश को दो भागों, भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। उस समय, सांप्रदायिक माहौल बहुत अधिक तनावपूर्ण हो गया था, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों को सीमा के आर-पार पलायन करना पड़ा। उन प्रतिकूल परिस्थितियों में, मोहम्मद अली जिन्ना ने व्यक्तिगत रूप से एम. एच. प्रेमजी को पाकिस्तान में आकर रहने का प्र- स्ताव भिजवाया। जिन्ना चाहते थे कि प्रेमजी को नए बनाए गए देश के वित्तमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाए, हालाँकि एम.एच. प्रेमजी के मन में भारत के प्रति गहरा प्रेम था और वे आनेवाले समय में पाकिस्तान के सामने आनेवाली समस्याओं का अंदाजा लगाने में सफल रहे थे, क्योंकि इसका निर्माण पूर्णतः धर्म के आधार पर किया गया था। इसलिए उन्होंने, जिन्ना का यह न्योता सम्मान के साथ ठुकरा दिया। समय के साथ कंपनी ने अन्य विविध हाइड्रोजनीकृत उत्पादों में अपना हाथ आजमाना प्रारंभ किया, इसलिए 'वनस्पति' शब्द को कंपनी के नाम से हटा दिया गया और इस प्रकार यह 'वेस्टर्न इंडियन प्रोडक्ट्स लिमिटेड' हो गया।
कारख़ाने का संचालन अमलनेर में होता था, जबकि व्यवसाय का मुख्यालय बंबई (अब मुंबई) में स्थित था और एम. एच. प्रेमजी अपनी पत्नी और चार बच्चों के पूरे परिवार के साथ वहीं पर रहते थे। उनकी पत्नी, गुलबानो प्रेमजी, उन चुनिंदा महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने उस प्रारंभिक दौर में चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया था, हालांकि उन्होंने कभी एक चिकित्सक के रूप में अपनी सेवाएँ नहीं दीं, क्योंकि उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों के बीच शायद ही कभी समय मिलता था, क्योंकि एम. एच. प्रेमजी अपने बढ़ते हुए व्यापार के चलते अकसर घर से बाहर ही रहते थे। निश्चित ही, वे परोपकार की भावना के चलते अकसर अपना समय बीमार बच्चों की देखभाल में जरूर लगातीं और आनेवाले दिनों में, अजीम को उनके नक्शेकदम पर चलना था, वो भी काफी बड़े पैमाने पर 24 जुलाई, 1945 को जनमे अजीम चार बच्चों में सबसे छोटे थे। उनका जन्म कंपनी की स्थापना से कुछ महीने पहले ही हुआ था। उनके माता-पिता ने शुरुआत से ही उनपर स्नेह की असीम वर्षा की थी।
हालाँकि परिवार संपन्न और अमीर था, लेकिन एम. एच. प्रेमजी और उनकी पत्नी का विशेष रूप से यह मानना था कि विलासितापूर्ण जीवन को बच्चों के उचित विकास की राह में बाधा नहीं बनने देना चाहिए, इसलिए उन्होंने उनका लालन-पालन बिल्कुल इस प्रकार से किया, जैसे वे किसी मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हों। इसके अलावा बच्चों को यह अहसास दिलवाने का भी गंभीर प्रयास किया गया कि कड़ी मेहनत का क्या मतलब है और जीवन में संतोष के साथ-साथ प्रगति से कैसे जुड़ी हुई है। इसके अलावा उन्हें धन को उचित कारणों में उपयोग करने और स्वयं को किसी भी अपव्यय को करने से रोकने के गुण भी सिखाए गए थे। बच्चों के मस्तिष्क में रोपे गए नेकी के बीज आनेवाले समय में परिपक्क वृक्षों में बदल गए।
अजीम प्रेमजी की स्कूली शिक्षा मुंबई के सेंट मैरी स्कूल में हुई। इस विद्यालय में समाज के विभिन्न वर्गों से संबंधित बच्चे शिक्षा प्राप्त करते थे, इसलिए प्रेमजी को उन सभी के साथ निकट संपर्क में आने का अवसर मिला, जिनमें गरीब और वंचित परिवारों के बच्चे भी शामिल थे। इसके अलावा विद्यालय को सदाचारी और परिश्रमी शिक्षकों का आशीर्वाद भी मिला, जिन्होंने प्रत्येक छात्र पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया। स्कूल और घर पर ऐसे कुलीन वातावरण में बढ़ते हुए अजीम ने अपने अंदर उन तमाम अच्छे गुणों को विकसित कर लिया, जो एक बच्चे को अपने स्कूल के दिनों में सीख लेने चाहिए। इन गुणों ने उनके चरित्र और शारीरिक क्षमताओं को प्रभावित किया और उन्हें एक दयालु व्यक्ति बना दिया। इसके अलावा वे मेहनती भी थे और खेलों में भी रुचि प्रदर्शित करते थे, जो अच्छे गुणों को मन में विकसित करने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। एक शिक्षक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य एक छात्र में सकारात्मक और नकारात्मक लक्षणों की पहचान करना है और तदनुसार नकारात्मक गुणों को सकारात्मक परिणामों की ओर मोड़ना है, ताकि एक व्यक्तित्व जीवन में बेहतर चीजों के लिए समृद्ध और परिष्कृत हो सके। ऐसा सिर्फ उनके शिक्षकों के महत्त्वपूर्ण प्रभाव के चलते ही था, जो अजीम ने अपने आनेवाले दिनों में कहा, ' , "मेरे तमाम शिक्षकों की प्रवृत्ति बेहद उत्कृष्ट थी। उनके मार्गदर्शन में अध्ययन करना एक वरदान की तरह था।"
अजीम ने अपने शिक्षकों की काफी प्रशंसा की है, लेकिन वे अपने स्कूल के दिनों में कोई बहुत होनहार छात्र नहीं थे। उनका पढ़ाई की और अधिक ध्यान नहीं था और वे परीक्षाओं और इम्तिहान में बहुत सारी गलतियाँ करते थे। वे एक ऐसे अतिसक्रिय छात्र थे, जिसने अपनी अधिकांश ऊर्जा छोटे-छोटे शरारती कामों में लगाई और इनमें से कई के चलते उन्हें शारीरिक दंड का भागी भी बनना पड़ा। अजीम याद करते हैं कि उन्हें अपनी गलतियों और शरारतों के लिए अपने घुटनों के बल खड़ा होना पड़ा और कुछ मौकों पर तो उन्हें अपने बुरे व्यवहार के चलते कक्षा से बाहर खड़े होने के लिए भी कहा गया। वे स्कूल को इस हद तक नापसंद करते थे कि अकसर प्रार्थना करते थे कि इतनी अधिक बारिश आ जाए, जिससे स्कूल में बाढ़ आ जाए; वे इतने निष्कपट थे कि उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि वही बाढ़ उनके अपने घर को भी डुबो सकती है।
हालाँकि शरारतों का यह दौर लंबे समय तक नहीं चला। वे जैसे-जैसे बड़े हुए, उन्हें पढ़ाई-लिखाई का महत्त्व समझ में आ गया और वे अपनी शिक्षा के प्रति गंभीर हो गए। इसके अलावा उनके आचरण में भी एक वृहद् परिवर्तन आया और वे सौम्य और धैर्यवान हो गए, जो टू- सरों का अवलोकन कर रहे थे और ज्ञान के शब्दों के लिए उनकी ओर देख रहे थे।