जो भीख मांगती सड़कों पर,
ये कैसी उसकी करनी थी।
क्या कहूँ भला उस ममता को,
जो दो बेटों की जननी थी।।
अपनी औलाद ने छोड़ दिया,
दर - दर की ठोकर खाने को।
लाठी ने दामन थाम लिया,
इस पेट की भूख मिटाने को।।
जिनकी ममता ने जीवन में,
पैसे का मोल नही जाना।
एक -एक पैसे को मोहताज है वो,
जब अपना खून हुआ बेगाना।।
खुद भूखी रहकर जिस मां ने,
संतान को पाला पोसा था।
कहती थी मेरे बुढ़ापे का,
बस यही तो एक भरोसा था।।
दो चार रुपए की खातिर जो,
गैरों के आगे हाथ पसारे थी।
दुर्बल शरीर मजबूर पेट,
की खातिर लज्जा बारे थी।
जीवन के अंतिम पड़ाव पर,
उसकी खुशियां रूठ गयी,
ममता की मूरत बिखर गई,
वो हालातों से टूट गयी।।
जब जन्मदायिनी इस हाल में हो,
तो फूट कलेजा रोता है।
संतानहीन होने का दुख,
इस दुख से तो कम होता है।।
न शर्म रही न लोक लाज,
इन कलियुग की औलादों में।
मां - बाप ठोकरें खाते हैं,
ममता रूपी अवसादों में।।
भीख मांगती मां को देखे,
लानत है पुत्र कहाने में।
यह दृश्य देखने से पहले,
मरना ही सही जमाने में।।