*व्यंग्य-‘‘शिक्षक बेचारा काम का मारा’’*
*(राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)*
शिक्षक इस दुनिया में सबसे अजीबोगरीब इंसान है वह बहुत ही बेबस,लाचार,दयनीय भी होता है। वह कक्षा में बच्चों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों की बौछार खाता है घर में बीबी से ताने और फटकार खाता है। दुकानदार से उधारी में सामान न पाने की घुड़की खाता है ये बात अलग है कि वह उसे प्यार से पुटिया लेता है और अपना उल्लू सीधा कर लेता है और स्कूल के लंच में मध्ययान भोजन में मुफ़्त में पतली दाल में कंकड़ खाता है जो उसे दाल होने का भ्रम पैदा करती है तथा डठूला लगी रोटी खाता है ताकि खाने वाले को किसी की नजर न लगे या हम कह सकते है कि चाँद सी रोटी खाता है जिसमें कई दाग होते है जो कहीं -कही पर गीले (कच्चा) होते है जो कि हमें चाँद पे पानी (जीवन) होने की अहसास दिलाते है।
लेकिन इन सबसे बदले में शिक्षक स्कूल में चपरासी से लेकर बाबू व हेड मास्टर तक के सभी पदों पर एक ही वेतन में काम करता है यह बात और है कि उसे बच्चों को स्कूल में पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता। स्कूल तो स्कूल, वह तो गाँव में जनगणना,जातिगणना,पशु गणना,मकान गणना चुनाव में वोट गणना आदि का कार्य भी बखूबी निभाता है। या हम कह सकते है कि शिक्षक एक बिना सींग की दूधारू गाय है, जिसे शासन जब चाहे दुहता रहता है बदले कभी कभी साल में एक बार थोडी सी वेतन वृद्वि इंक्रीमेंट या मंहगाई भत्ता का हरा चारा खिलाता रहता है। ताकि ये सभी शिक्षक ज्यादा से ज्यादा दूध (काम) दे सके।
इस शिक्षक रूपी प्राणी की पहचान पहले सफेद कुर्ता- पजामा या धोती,एक छाता व साइकिल होती थी, लेकिन समय के परिवर्तन के साथ अब कुर्ता पजामा के स्थान पर पेंट शर्ट और कहीं -कहीं पर जींस,टी शर्ट ने ले ली है। छाता तो ओल्ड फैशन हो गया है इसीलिए इसका प्रयोग बहुत ही कम हो गया है। क्योंकि बरसात मे कभी-कभी यदि बहुत आवश्यक हुआ तो ही स्कूल जाना पड़ा तो रेनकोट पहन कर चले गये वर्ना जिस दिन बरसात हुई उस दिन रेनी डे मना लिया। साइकिल का स्थान अब मोटर साइकिल ने ले लिया है। झोला अभी भी गाँव के शिक्षकों के कंधे पर दिखाई पड़ जाता है जबकि शहर में काले रंग के बैग का उपयोग होने लगा। जो कि स्कूल की फाइले एवं मुफ्त मे मिली सब्जी रखने के बहुत काम आता है। सब्जियाँ बाहर न झाँके क्योंकि इनसे उनके ‘किडनेप’ होने का खतरा बना रहता है। इसलिए बैग में एक चैन लगी होती तथा जिसमें एक छोटा सा ताला भी लगा होता है।
प्राइवेट शिक्षक वह शिक्षक होता है। जिसकी गन्ने की तरह शासन द्वारा पिराई की जाती है। जिससे उसका वेट कम हो जाता है और जब किसी चीज का वैट कम हो जाता है। तो उसका रेट भी कम हो जाता है और जिसका रेट ‘सैट’ हो जाता है तो वह अनेक वर्षों तक उसी स्कूल में सैट हो जाता है और जब वह सैट हो जाता है तो टयूशन करने के कारण स्कूल आने में लेट हो जाता है। यहीं से उसका मटियामेट हो जाता है और फिर एक दिन वह स्कूल के गेट से भैंट हो जाता है अर्थात वह दूसरे स्कूल का गेट खटखटाता है और वहाँ पे पहले से भी कम रेट पर ‘सेट’ हो जाता है।
यूं तो शिक्षकों के दो मुख्य प्रकार होते है। पहला शासकीय शिक्षक तथा दूसरा प्राइवेट शिक्षक। प्राचीनकाल में शिक्षक एक ही प्रकार के होते थे। जिन्हें हम गुरू कहते थे। अब इनकी दो नस्ले ‘गुरूजी’ व ‘शिक्षाकर्मी’ भी अस्तित्व में आ चुकी है। इनकी भी उप प्रजातियाँ हैं। प्राइवेट स्कूलों में कम्प्यूटर शिक्षक भी होने लगे है जो शिक्षक कम बाबू का काम अधिक करते है।
कुछ विद्वान भाषाओं के आधार पर भी इनके भिन्न-भिन्न नाम रखे है जैसे संस्कृत में आचार्य,अंगे्रजी में प्रोफेसर,डाॅ.,आदि नामों से भी महिमा मंडित किया जाता है। जितने बडे़ पद पर शिक्षक होगा उसका उतना ही अधिक वेतन होगा,लेकिन काम इसके विपरीत उतना ही कम होता जाता है। एक कटु सत्य है कि कालेज में प्रोफेसर,डाॅ. पढ़ाने कम टाइम पास करने एवं गप्पे हाँकने ज्यादा जाते है। जबकि गाँवों के स्कूलों में शिक्षक पढ़ाने कम सब्जी लेने ज्यादा जाते है। वह भी विशेष हफ्ते में एक दिन जिस दिन वहाँ का बाज़ार लगता है।
प्राचीनकाल में आचार्य ‘गुरू’ जंगल में आश्रम बनाकर मुफ्त में पढ़ाते थे। किन्तु आधुनिक शिक्षक ‘ट्यूशन’ को मजबूर करके करने उनसे पैसा जबरन बसूल करते है। अपने घर पर बुलाते है और जो ‘टयूशन’ नहीं पढ़ता है उसे कम नम्बर देने तथा फैल करने की धमकी भी देते है। वो तो धन्य है हमारी सरकार जिन्हांेने कक्षा- 8वीं तक किसी भी छात्र-छात्राओं फेल नहीं करने का आदेश निकाल रखा है अतः बच्चों की कक्षा- 8वीं तक तो नैया पार हो ही जायेगी। कक्षा-9वीें में एक साल किसी तरह ट्यूशन पढ़ लेगे और फिर कक्षा 10वीं की तो बोर्ड परीक्षा होती है उसमें शिक्षक हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। फेल तो वे कर सकते नहीं, प्रेक्टीकल में पास तो उन्हें करना ही पड़ेगा। और परीक्षा में हम किसी तरह जुगाड़ करके अगल-वगल में तांक झांक करके नकल करके पास तो हो ही जायेंगे।
खैर ! धन्य है वे आधुनिक शिक्षक जो आज अपना मूल कार्य शिक्षा धर्म भूलकर अन्य कार्यो में लिप्त रहते है तथा ‘ओ डी’ लगवाकर या आफिस का कोई काम बताकर प्रायः स्कूल से गोल रहते है और बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते रहते है। वे तो चालीस हजार रू.वेतन पाते है और काम 420 का करते है।
अब शासन ने नयी भर्ती के तहत शिक्षक के स्थान पर ‘शिक्षाकर्मी’ रख लिये है वो भी इतने कम वेतन में जो कि पुराने चपरासी तक के वेतन से इतना कम है कि उन्हें किसी को बताने तक में शर्म आती हैं। उन शिक्षाकर्मियों का एक नारा है ‘जितना वेतन उतना काम’ उनका सीधा सा गणित है कि जितना 40000रू.पाने वाला शिक्षक काम करता है उससे दस प्रतिशत कम काम हम करेगे,क्यांेकि वेतन भी हमे उनका दस प्रतिशत ही मिलता है। अब आप स्वयं अंदाज लगा सकते है कि भारत में एक सरकारी ‘पुराना शिक्षक’ स्कूल में बच्चों को कितना पढ़ाई कराते है और कितने दिन ईमानदारी से स्कूल पढ़ाने जाते है। कुछ शिक्षाकर्मियों ने तो बाकायदा अपने स्थान पर उसी गाँव के लड़कों को किराये (किराये का मास्टर) पर रख लिये हैं उन्हें अपने वेतन में से आधा या कहीं- कहीं पर एक या दो हजार रू मासिक दे कर अपना पूरा वेतन घर बैठे पाते रखते है। आज शिक्षक अपनी गरिमा,मान सम्मान खो बैठा है। पहले लोग एवं सारा गाँव सम्मान की दृष्टि से देखता था,तथा उनके पाँव पड़ता था लेकिन आज तो शिक्षकों को पाँव पड़ना तो बहुत दूर की बात है कोई नमस्ते तक नहीं करता,उलते वक़्त पड़ने पर उनके हाथ-पाँव भी तोड़ने से नहीं चूकता। इसी से शिक्षकों के पांव अब स्कूल में नहीं पड़ते।
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*राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’*
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
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