#व्यंग्य - "#आदमी में आदमी पैदा करो"*
किसी गीतकार ने बहुत पहले एक गीत लिखा था उसके बोल थे "आदमी में आदमी पैदा करो" पता नहीं क्यों मुझे यह मुखडा जरा सा भी पसंद नहीं गया। मेरे दिमाग का कीडा कुलबुवाले लगा तो फिर मैने अपने दिमाग के घोड को शताब्दी ट्रेन की गति से दौड़ाया और फिर सोचा कि आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकता है? यह तो प्रकृति के नियम विरुद्ध है। आदमी में आदमी पैदा नहीं हो सकता आदमी में तो आदमीयत पैदा हो सकती है या इंसानियत पैदा की जा सकती है।
लेकिन इंसानियत तो आदमी के पास बची नहीं वह तो अब ट्रांसफर होकर जानवरों के पास पहुंच गयी है और आदमी ने जानवरत पैदा कर ली है भई परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है।
सोचने वाली बात ये है कि आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकता है वो तो पहले से ही आलरेडी आदमी है। अब आदमी को दोबारा आदमी कहने या बनाने की क्या जरुरत है। ये कोई फिल्म थोड़े ही न है जो डबल रोल या ट्रपल रोल हो जाये। ऐसे तो कोई दूसरा कवि कह सकता है कुत्ता में कुत्ता पैदा करो या बंदर में बंदर पैदा करो। कमाल है जो चीज पहले से ही मौजूद है उसे फिर से पैदा होने के लिए कह रहे है। वैसे भी भारत जनसंख्या वृद्धि से बहुत परेशान है और ये जनाब कह रहे है कि आदमी में आदमी पैदा करो। क्या और आदमियों का ढेर लगाना है ?
कहना ही है तो कहते आदमी के कुत्ता पैदा करो या गधे में आदमी पैदा करो तो लगता कि कुछ नया सोचा है नयी कल्पना की गयी है कुछ डिफरेंट सोचा है।
इसीलिए हमारा तो बस इतना कहना है कि आदमी में आदमी मत पैदा करो बल्कि आदमी में आदमीयत पैदा करो तो ठीक रहेगा या आदमी में इंसानियत पैदा करो तो ठीक है।
***
-© #राजीव_नामदेव #राना_लिधौरी
संपादक आकांक्षा पत्रिका
टीकमगढ (म.प)
मोबाइल- 9893520965