पत्थर मूर्त ही नही ,दिल भी होता है,
पिघल जाए शायद यह भ्रम क्यूं होता है।।
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समझाया था उसे नफ़रत करे और करे जम कर,मगर ध्यान रहे,
कि कतार मे खड़ा दुश्मन भी कोई होता है।।
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मुसाफ़िर था,वह राह का,उसे,इक रात ही तो सिर्फ बितानी थी,
सफर लंबा था, और हम जिम्मेवारी,ऐसे मे मंजिल थोडे ही थे जो उसे पानी थी।।
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खामोशी सुन ली उसने मेरी,हँसते हुए,
बोला, अब चुप भी हो,जा, यार छोड़ जिंदगी ऐसी ही,थोडे बितानी थी।।
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हवाओं ने जरा सा, रूख ही तो बदला था,
फिज़ाएं क्यूं सो गई तान कर चादर
नफ़रत थी, मोहब्बत थोडे,, जो निभानी थी।।
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हर बार की जिद्द, रूठने की उसकी,
हमने भी कहा, यह शय रोज मनानी थी।।
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कि
खत्म कर आए वो राह हम, मंजिल मे पहुँचने से पहले,ही,
मंजिल सिलवट थी,और सिलसिलेवार की कहानी थी।।
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और
इक वर्का हमने रहने दिया खाली ही,
समझ अपनी थी,,लिखनी सारी थोडे कहानी थी।।
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संदीप शर्मा।।