जल में कमल की तरह
मनीषी कहते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित होते हैं, उनकी चिन्ता वह मालिक स्वयं करता है। इस संसार के सभी जीव परमात्मा का ही अंश हैं। इस भौतिक संसार के माता-पिता जैसे अपने बच्चों की सारी सुविधाएँ देते हैं, उसी तरह परमपिता भी अपने सब बच्चों के सुख-दुख और सुविधाओं के विषय में सदा सोचता रहता है।
वैसे तो वह परमपिता परमात्मा सभी जीवों के विषय में सोचता है, उसके लिए सभी जीव एक समान हैं। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता क्योंकि वह महान न्यायकारी है। हर जीव को उसके कृत कर्मों के अनुसार समय पर देता रहता है। वह उनके भरण-पोषण की व्यवस्था वह स्वयं करता है।
बाबा फरीद साहब कहते हैं- फिकर करे सो बावरा। जिक्र करे सौ बार। उठ फरीदा जिक्र कर। फिकर करेगा आप।
अर्थात् बाबा जी मानव से कहते हैं कि हे मनुष्य, तू फिक्र मत किया कर। कुछ करना है तो सद् गुरु का जिक्र सौ बार कर, यह तेरा काम है। जिक्र करना यानी ईश्वर का सिमरण करना, भजन करना। तेरी फिक्र करना सत्गुरु का काम है। जब तू उसे याद करेगा तो वो मालिक भी तेरी फिक्र या चिन्ता करेगा।
मनुष्य को स्वयं अपने अंतस में ही आत्मिक विकास करना होता है। कोई भी अन्य व्यक्ति उसको कुछ सिखा नहीं सकता। मनुष्य स्वयं ही अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करके, सज्जनों की संगति में रहकर और ईश्वर की उपासना करके ही आध्यात्मिक बन सकता है।
मनुष्य को कोई भी आध्यात्मिक नहीं बना सकता। यह कोई ऐसा लड्डू नहीं कि जिसे खिलाकर मानव को हाथोंहाथ प्रभु का प्रिय बना दिया जाए। मनुष्य को सिखाने वाला कोई और नहीं होता बल्कि उसकी अपनी ही अन्तरात्मा होती है। उसे आत्मचिन्तन करते हुए स्वयं ही अपने अंतस में विद्यमान दुर्गुणों को त्याग करके स्वयं में सद् गुणों का विकास करना होता है। ईश्वर के बनाए हुए सभी जीवों साथ सदा ही समनता का व्यवहार करना होता है। उन सब जीवों में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करना होता है।
मनीषी कहते हैं कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। उसे ढूँढने के लिए जंगलों में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तथाकथित धर्मगुरुओं अथवा तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास जाकर अपना अमूल्य धन व समय को बरबाद नहीं करना चाहिए। उसे जब भी खोजना हो, बस अपने घर मे एकान्त में बैठकर मन में झाँककर देख लो। वह वहीं मिल जाएगा।
मालिक को मन में देखने के लिए उसे मन्दिर की तरह शुद्ध और पवित्र बनाना पड़ता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि आन्तरिक शत्रुओं को वश में करना होता है। अपनी दसों इन्द्रियों को साधना होता है।
जो व्यक्ति अपने अंतस में ईश्वर का ध्यान करता है तथा दूसरे जीवों में ईश्वर को देखता है और ईश्वर की विद्यमानता का सर्वत्र अनुभव करता है, वास्तव में वही ज्ञानी कहलाता है।
स्वयं को ईश्वरमय बनाना कोई खाला जी का घर नहीं है। उसके लिए कठोर यम और नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है। सभी सांसारिक भोगों को भोगते हुए जल में कमल की तरह उनसे निर्लिप्त रहना होता है।
ईश्वर ने हम सबको इस संसार में एक खाली चेक की भाँति भेजा है। हमें स्वयं अपने गुणों तथा योग्यताओं के आधार पर ही उसमें अपनी कीमत भरनी होती है।
यदि स्वयं को मूल्यवान बनाना है तो उपरोक्त बातों पर गम्भीरता से मनन करना होगा। आत्मचिन्तन करके ईश्वर का कृपा पात्र बनने का भरसक प्रयास करना होगा ताकि कोई कसक न बच सके। पूर्ण रूपेण अपनी जीवन नैया उस परमेश्वर के हवाले कर देनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद