दीवाली, दीपावली या दीपोत्सव जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है, एक ऐसा उत्सव जिसमें दीप का विशेष महत्व है। मेरे लिए भी यह हमेशा से उत्सव ही रहा है। परंतु पिछले वर्ष दीवाली का एक अलग ही रूप मेरे सामने आया, क्योंकि उस साल मैं दिल्ली में था। दीवाली कि रात और उसके बाद के कुछ दिन मेरे लिए बहुत बहुत ही भयावह थे। पहले तो मध्यरात्रि तक परंपरागत पटाखों का निर्बाध और अनवरत विस्फोट, शायद ऐसी परंपरा हो कहीं कि दीवाली के रात को सोते नही है, पर अगले दिन छुट्टी नही होती तो इस परंपरा को जिंदा रखने के लिए दीवाली की छुट्टी उसके अगले दिन कर दी जानी चाहिए। खैर नींद तो खराब हुई ही जैसे तैसे सुबह उठा तो फुट चुके पटाखों के अवशेष हमारी महान परंपरा का वर्णन कर रहा था या स्वच्छ भारत अभियान की आवश्यकता पर बहुत ही ज्यादा बल दे रहा था वो मुझे नही पता। इन अवशेषों को एक महिला सफाई कर्मचारी बहुत ही तन्मयता से साफ कर रही थी, ऐसा मुझे दिखा पर उस समय उसका क्या मनोभाव होगा, वो उसे ही बखूबी पता है।
जैसे जैसे दिन चढ़ता गया पटाखा फोड़ने का जो विशेष आयोजन उस रात हुआ था उसके अवशेष ने धरती को तो शोभित कर ही दिया था अब अपनी खुशबू, अंदाज, करामात चहुं ओर फैलाने लगा था। बिना ग्रहण और बादल के सूरज को छुपते देखा, बिना अश्रु गैस के आंखों को रोते देखा, बिना नाक दबाए सांसो को घुटते देखा। कुल मिला कर ये दिन में जो रात होने का नजारा था बहुत ही भयावह और सोचनीय था क्योंकि दिल्ली में प्रदूषण की कहानी कोई नई बात नही है, पर एक शब्द होता है संतृप्तता। प्रदूषण के इस संतृप्तता को दीवाली के अगले कुछ दिनों में जो हवा की गुणवत्ता होती है उसके डाटा से बखूबी समझा जा सकता है। दीवाली के अगले कुछ दिनों तक सामान्य से 10 से 14 गुणा तक पी एम 2.5 की मात्रा बढ़ गयी थी।इस प्रदूषित वायु से निसंदेह बुजुर्ग, आस्थमा मरीज, नवजात शिशु को परेशानी हुई होगी, हाँ इसका दावा मैं नही कर सकता, पर मुझे तो शत प्रतिशत परेशानी हुई ही।
इस बार जैसे जैसे दीवाली नजदीक आ रही थी, मैं पिछले साल के अनुभव से आशंकित हो रहा था कि कहीं वही भयावह परिस्थिति फिर से सामने न आ जाये। पर तभी माननीय उच्चतम न्यायालय हमारे जीने के अधिकार, स्वच्छ हवा का अधिकार के रक्षक के रूप में सामने आया और पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी। इस निर्णय को सुन के सुकून में दिवाली मानेगा, यकीन हो गया।
पर परंपराओं के पुरोधा कहाँ मानने वाले हैं अखबारों में ऐसी भी खबर आ रही है कि पटाखों की चोरी छीपे बिक्री हो रही है और शायद होम डिलीवरी की भी सुविधा दी जा रही है। खैर ये कितना सही है वो तो दीवाली के दिन पता चलेगा।
पर इससे भी भी अजीब बात ये है कि कुछ लोग इस फैसलों को धार्मिक रंग देते हुए इस पर सवाल उठा रहे हैं। क्या जीने का अधिकार , स्वच्छ वातावरण, उत्तम स्वास्थ्य को भी परंपरा के चश्मे से देखा जा सकता है। शायद नही। पर मूल बात ये है कि क्या ऐसी कोई परंपरा है भी। मुझे तो बचपन से अभी तक यही बताया गया कि श्री राम जब रावण का वध करके आयोध्या लौटे तो उनके स्वागत में दीप जलाए गए, अब पटाखे जलाने की परंपरा कब विकसित हुई, इस साहित्य से मेरा पाला नहीं पड़ा। जहां तक मेरी जानकारी कहती है आतिशबाजी की शुरुआत शायद मुगल काल से हुई थी, फिर ये सनातन परंपरा कैसे हो गयी पता नही। वैसे सोचने वाली बात ये भी है कि जिस प्रभु राम के विजयोपरांत घर आगमन के प्रतीक स्वरूप हम दिवाली मनाते हैं, उनके समय के शासन को एक आदर्श माना जाता है जिसे राम राज्य कहते हैं तो क्या उस राम राज्य में दूषित हवा से बीमार होना और किसी का जिंदगी गंवा देना स्वीकार्य है।
कुछ तर्क ऐसे भी दिए जा रहे हैं कि हम ही क्यों वो क्यों नही, क्या प्रदूषण रोकने के ठेकेदार हम ही हैं। शायद नहीं पर अपने परिवार और बच्चे को अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करने के ठेकेदार हम और केवल हम है। अब निर्भर हम पे करता है किसकी ठेकेदारी करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। वैसे इसी तर्क पर एक कहानी याद आ गयी "दो भाई किसान थे, एक दिन मक्के के खेत मे एक भाई से एक पौधा गलती से कट गया, तो दूसरे भाई ने भी एक पौधा काट दिया, फिर पहले ने एक और ऐसा करते करते पूरा खेत दोनों भाइयों ने नष्ट कर दिया" हम भी कुछ उसी दिशा में जा रहें है।
एक मेरे मित्र ने तर्क दिया कि पटाखों से कुत्ते डरते हैं। तो भाई साहस और दुःसाहस में थोड़ा ही फर्क होता है तो हर कदम को साहस और डर के तराजू पर तौलने का औचित्य समझ से परे है।
तो बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के दबाव में ही सही, नही ज्यादा तो कुछ हद तक पर्यवरण हितैषी दीवाली इस बार जरूर मनेगी। एक आग्रह परंपराओं की दुहाई देने वालों से भी है कि हमारे शास्त्रों में आतिशबाजी का जिक्र हो या न हो पर पर्यावण को पूजने के कई साक्ष्य मौजूद हैं। तो उसी परंपरा के तहत पर्यावरण को बचाइए और बिना पटाखों का दीवाली मनाने की शुरुआत कीजिये।
Bandhu Uvaach