परायों जैसा व्यवहार
मनुष्य के अपने सगे-सम्बन्धी कब परायों जैसा व्यवहार करने लगते हैं? पता ही नहीं चलता। वह हैरान होकर उनके बदलते हुए इस आचरण को बस मूक दर्शक बनकर ताकता रह जाता है। चाहकर भी वह सब कुछ सुधारकर पहले जैसा नहीं बना पाता। उस समय वह अपना मन मसोसकर भाग्य को कोसने लगता है। वास्तव में यह भी सत्य है कि मनुष्य का भाग्य कब और किस करवट बैठ जाता है, इसका भी कुछ ज्ञान नहीं होता। केवल मात्र वह मालिक ही सब जनता है और अज्ञ मनुष्य इस सबसे अनजान रहता है।
कहते हैं यह संसार एक मेला है। लोग मिलते रहते हैं और बिछुड़ते रहते हैं। कोई भी सम्बन्ध स्थायी नहीं रहता। ये सभी स्वार्थ की डोरी से बँधे रहते हैं। जहाँ स्वार्थ पूर्ण हुआ वहीं तक सम्बन्ध बने रहते हैं। उसके पश्चात दरकने लगते हैं। इसका अर्थ यही किया जा सकता है कि मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। फिर चाहे वे कदम सम्बन्धियों अथवा मित्रों की ओर बढ़ने वाले हों।
ईश्वर की ओर से ये सम्बन्ध मनुष्य को उसके कर्मानुसार ही मिलते हैं। यानी जिससे जितना उसका लेनदेन का सम्बन्ध होता है, उतना ही वह सम्बन्ध स्वतः निभाया जाता है। उसके पश्चात उससे विच्छेद या वियोग हो जाता है। इस विषय से सम्बन्धित एक कथा का या दृष्टान्त का स्मरण हो रहा है, जिसे बहुत वर्ष पूर्व पढ़ा था।
किसी स्त्री को बहुत साल तक सन्तान नहीं हुई। उसके शुभकर्मों के संयोग से उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। किन्तु दुर्भाग्यवश जन्म के कुछ दिनों बाद ही उस सन्तान की मृत्यु को हो गयी। वह स्त्री अपने दुर्भाग्य पर बहुत रोई। अपने मृत बच्चे का शव लेकर एक सिद्ध महात्मा के पास गई। महात्मा से रो-रोकर कहने लगी, "कृपया मेरा बच्चा बेशक कुछ पल के लिए जीवित कर दीजिए, एक बार मैं उसके मुख से 'माँ' शब्द सुनना चाहती हूँ।"
स्त्री के बहुत जिद करने पर महात्मा ने दो मिनट के लिए उस बच्चे की आत्मा को बुलाया। तब उस स्त्री ने अपने बच्चे की आत्मा से पूछा, "तुम मुझे क्यों छोड़कर चले गए? मैं तुमसे सिर्फ एक बार 'माँ' शब्द सुनना चाहती हूँ।"
तभी उस आत्मा ने कहा, "कौन माँ? किसकी माँ? मैं तो तुमसे अपने कर्मों का हिसाब पूरा करने आया था।"
स्त्री ने पूछा, "मैं समझी नहीं, कौन से कर्मों का हिसाब?"
उस बच्चे की आत्मा ने बताया, "पिछले जन्म में तुम मेरी सौतन थी, मेरे आँखों के सामने तुम मेरे पति को मुझसे छीनकर ले गई थी। मैं बहुत रोई थी, तुमसे अपना पति वापिस माँगा था पर तुमने मेरी एक नहीं सुनी थी। तब मैं रो रही थी और आज तुम रो रही हो। बस मेरा तुम्हारे साथ जो कर्मों का हिसाब-किताब था, वह मैंने पूरा कर लिया और तुम्हें छोड़कर इस दुनिया को छोड़कर चला गया।"
इतना कहकर आत्मा वहाँ से चली गयी। उस स्त्री को बहुत बड़ा झटका लगा। तब उसे महात्मा जी ने उसे समझाया, "देखो मैंने कहा था न कि ये सब रिश्तेदार माँ, पिता, भाई, बहन, मित्र आदि सब कर्मों के कारण जुड़े हुए हैं। हम सब अपने-अपने कर्मो का लेखाजोखा पूरा करने के लिए इस संसार में आते हैं। इसिलए बस अच्छे कर्म करो ताकि बाद में हमें भुगतना न पड़े।"
वह स्त्री महात्मा जी की बात समझ गयी और अपने घर वापिस लौट गयी ।
यह कथा हमें यही शिक्षा देती है कि हर मनुष्य को अपने शुभाशुभ कर्मों का भुगतान करना पड़ता है। कोई भी जीव इस कर्मफल से बच नहीं सकता। इसलिए प्रयासपूर्वक सदा ही शुभ कर्म करने चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद