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लोकतंत्र और भीडतंत्र

21 अप्रैल 2020

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'पालघर' की घटना उतनी ही निंदनीय है जितनी इससे पहले की मॉब लीचिंग रही हैं। भीड़तंत्र भारत के लोकतान्त्रिक चरित्र के लिए बहुत घातक है। नागरिक किसी भी धर्म और संप्रदाय का हो उसे भी जीने का हक है। कभी गौ मांस के नाम पर, कभी अफवाह के नाम पर, भीड़ लोगों को मार रही है और कुछ लोग इसे धार्मिक रूप देकर, खुद को बचा हुआ महसूस कर रहे हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो एक धर्म विशेष के लोगों के साथ ऐसा होने पर जश्न मनाते हैं और सरे आम अपने बौद्धिक दिवालियापन का सबूत देते हैं। दलित और मुस्लिम के साथ कभी न्याय नहीं हुआ, उस समय यही लोग " गोली मारो सालो को" बोलकर लिंचिंग करने वालों का मनोबल बढ़ा रहे थे, मिठाई बांट रहे थे और उनको फूल मालाएं पहना रहे थे। ये देश लोकतांत्रिक है न कि जंगलराज। पर कुछ जंगली लोग जरूर इसकी आड़ में अपना काम निकाल रहे हैं। जो भी भीड़तंत्र द्वारा किया जाएगा वो अमानवीय है । संवैधानिक मूल्यों को ही समाज की जरूरत है। किसी भी विशेष विचारधारा से अगर लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन होता है वो हमेशा त्यागयोग्य है। जहाँ भी लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है तो देश को खतरा है। जब हम धर्म और जाति के दायरे में ही इन घटनाओं को देखना शुरू कर देंगे तो हम मानवता के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और देशभक्त भी नहीं सिद्ध हो रहे क्योंकि देश के संविधान के मूल्यों के विपरीत सोच रख रहे हैं। अतः हम सभी का कर्तव्य बनता है कि धर्म और जाति को छोड़, भारत को उसके लोकतांत्रिक रूप में स्वीकार करें और उसी के अनुरूप कार्य करें।

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डॉ. भीम राव अंबेडकर जी को परिनिर्वाण दिवस पर कोटि कोटि नमन

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सभी साथियों को डॉ भीम राव अम्बेडकर जी के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

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डॉ भीमराव अंबेडकर और राजनीतिक लोकतंत्र

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डॉ भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में अंबेडकर सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में संविधान प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग जरूरी बताते हुए कहते हैं, ‘इसका मतलब है कि हमें खूनी क्रांतियों का तरीका छोड़ना होगा, अवज्ञा का रास्ता छोड़ना होगा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्त

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मौलिक कर्तव्य और संविधान के आदर्श

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दोस्तों, "मौलिक कर्तव्य" भारतीय संविधान के भाग IV क में अनुच्छेद 51 क में सम्मिलित किया गया है। वर्ष 2002वके 86वें संशोधन के द्वारा मौलिक कर्तव्यों की संख्या 10 से बढ़ा कर 11 कर दी गयी है। देखा जाए तो अधिकारों से पहले कर्तव्य की समझ जरूरी है। हमें सोचना चाहिए कि क्या हम आने मौलिक कर्तव्यों के बारे अच

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मार्क्स का चिंतन भारतीय विद्वानों के लिए एक अनबुझ पहेली है। भारतीय समाज और राज्य पर हम उस चिंतन को सही ढंग से प्रयोग करने की बजाये हम इस बात पर जोर देते हैं कि दूसरे देशों में मार्क्सवाद की क्या गति रही। जबकि सबसे बड़ी बात तो ईमानदारी से चिंतन की है क्योंकि जब भी हमें किसी व्यवहारिक सिद्धान्त की तला

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वर्ष 2020 का अंतिम दिन।

31 दिसम्बर 2020
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वर्ष 2020 का अंतिम दिन। यह साल छोटी छोटी खुशियों को सहेजने का साल रहा। कोरोना समय ने बता दिया कि जिन चीजों को हम सहज ही लेते हैं वह बहुत मूल्यवान होती है। शायद यह वर्ष "परिवार वर्ष" बनकर हम सभी के सामने आया। इस वर्ष में बहुत समय मिला पढ़ने को। खुद के लिए कुछ करने को। वरना हम केवल मशीनी बनकर रह गए हैं

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