क्षमा करना श्रेयस्कर
मनीषी कहते हैं इन्सान गलतियों का पुतला है। यदि वह गलती नहीं करेगा तो भगवान बन जाएगा। गलती हर मनुष्य से यदाकदा हो जाती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि वह व्यक्ति घर, परिवार या समाज के योग्य नहीं रह गया। अब उसका बहिष्कार कर देना चाहिए अथवा उसका हुक्का-पानी बन्द करना चाहिए। उसका केवल एक ही इलाज होता है, वह है अपना दिल बड़ा करके उसे क्षमा कर देना। दूसरे को क्षमा करने वाला महान होता है, वह किसी तरह से छोटा नहीं बन जाता।
हम देखते हैं कि घर में बच्चे प्रायः कोई-न-कोई गलती करते रहते हैं। उन्हें समय-समय पर माता-पिता समझाते रहते हैं और पुनः गलती न करने की चेतवानी भी देते हैं। परन्तु बच्चे फिर उन गलतियों को भी दोहराते हैं और नई-नई गलतियाँ भी करते हैं। इसका यह अर्थ तो नहीं है कि उनसे किनारा कर लिया जाय या उन्हें बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया जाए। घर में माता-पिता, बड़े भाई-बहन या अन्य सदस्य उन्हें क्षमा कर देते हैं, माफ करते हैं।
इसी प्रकार पति-पत्नी का आपस में किसी भी कारण से मनमुटाव हो जाता है या दोनों में से किसी का व्यवहार असहनीय हो जाता है या दोनों में से कोई ऐसी चुभती बात कह देता है, जिसे टाला जा सकता था। ऐसी स्थिति बन जाने पर वे एक-दूसरे को न चाहते भी अपने परिवार को टूटने से बचाने के लिए माफ कर देते हैं। बहुत से ऐसे अपरिहार्य अवसर घर-गृहस्थी में आ जाते हैं, जब वे एक-दूसरे को माफ कर करके जीवन में आगे बढ़ हैं। फिर वे पहले की तरह व्यवहार करने लग जाते हैं। इसलिए क्षमा करने वाला छोटा नहीं हो जाता।
अपने आस-पड़ोस में भी बहुत-सी छोटी-बड़ी बातों को लेकर अक्सर झगड़ा हो जाता है। उस समय के झगड़े या बहस को खानदानी दुश्मनियों में न बदलकर परस्पर माफ कर दिया जाता है। फिर कुछ दिन बाद सब ठीक हो जाता है यानी सब कार्य-व्यवहार पूर्ववत चलने लगते हैं। वैसे ही मिलना-जुलना, एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना आदि। उस समय कोई यह कह ही नहीं सकता कि उन पड़ोसियों के बीच कभी कोई अप्रिय प्रसंग भी आया था।
अपने कार्यक्षेत्र के सहकर्मियों के बीच कभी-न-कभी किसी कारण से अनबन हो जाया करती है। कभी किसी को नीचा दिखाने की होड़ में तो कभी व्यावसायिक शत्रुता सिर उठाने लगती है। इतना सब होने पर भी एक-दूसरे को माफ करते हुए, मिलजुलकर आगे बढ़ा जाता है। यदि ऐसा न किया जाए तो एकसाथ कार्य करना दुश्वार हो जाएगा।
बच्चे अपने साथियों कद साथ खेलते हुए अनेक बार रूठते और मानते हैं। उनमें कुट्टी और अब्बा होती रहती है। यानी वे एक-दूसरे को शीघ्र ही माफ कर देते हैं और अगले ही पल गलबहियाँ डाले खेलते हुए दिखाई देते हैं। क्या हम बड़े लोग बच्चों के समान सरल हृदय नहीं हो सकते?
यदि कभी किसी कारण से दो पक्षों में झगड़ा हो जाता है या लेनदेन सम्बन्धी विवाद हो जाता है तब थाना-पुलिस या अदालत में मामला चला जाता है। अन्त में वहाँ भी एक-दूसरे को क्षमा करके समझौता करने के लिए कहा जाता है अन्यथा फिर कारावास आदि का दंश झेलना पड़ता है। ऐसी स्थिति आने से पहले ही क्षमा कर देना चाहिए।
इस सारे विश्लेषण से यही स्पष्ट होता है कि अपने मन में गाँठ बाँधकर पिष्टपेषण करने से दूसरे को क्षमा कर देना श्रेयस्कर होता है। इससे अपने मन को शान्ति मिलती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारी गलतियों को दूसरे लोग अनदेखा कर दें, हमें क्षमा करते हुए हमारे प्रति अपने मन को साफ रखें, तो हमें भी वैसा ही करना चाहिए। हम ईश्वर से अपेक्षा करते हैं कि वह हमारी त्रुटियों को चित्त में न रखकर हमें माफ कर दे तो हमें भी वैसा ही आचरण करना चाहिए।
प्रकृति का हम दोहन करते हैं, उसको दूषित दूषित करते हैं, फिर भी वह हमें क्षमा कर देती है। हम मननशील मनुष्य क्योंकर ऐसा नहीं कर सकते। हाँ, गम्भीर अपराधियों को देखने के लिए न्याय-व्यवस्था है, इस विषय को उस पर छोड़ देना चाहिए। वह स्वयं उनके लिए दण्ड का निर्धारण करती है।
सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे, इसके लिए सामञ्जस्य बनाकर चलना पड़ता हैं। यदि दूसरों को क्षमा करने या सहन करने की शक्ति मनुष्य नहीं रखेगा तो वह समाज से काटकर अकेला हो जाएगा। लोग घमण्डी कहकर उसे तिरस्कृत करेंगे। हो सकता है लोग क्षमाशीलता को मनुष्य का अवगुण मान लें, पर उसकी प्रशंसा किए बिना भी नहीं रह सकते। अतः अपने बन्धु-बान्धवों के साथ यदि लम्बे समय तक मधुर सम्बन्ध बनाए रखने हों तो क्षमावान बनिए।
चन्द्र प्रभा सूद