विवेक का शत्रु
विवेक का हरण करने वाला क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। वह उसके अंतस में विद्यमान रहता है और उसके विवेक पर निरन्तर प्रहार करता रहता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं कि क्रोध में मनुष्य पागल हो जाता है। वह भले और बुरे में अन्तर करना भूल जाता है। अपनों को ही अपना शत्रु मानकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।
क्रोध के पूरे खानदान की के विषय में पिछले दिनों वाट्सअप पर पढ़ा। पढ़कर वाकई यह सोच अच्छी लगी। लेखक का नाम वहाँ नहीं लिखा हुआ था। क्रोध के पूरे खानदान के सदस्यों की एक लिस्ट वहाँ दी हुई थी जो इस प्रकार है-
क्रोध का पिता भय है जिससे यह डरता है, उसकी माता का नाम उपेक्षा है, उसका दादा द्वेष है। उसका एक बड़ा भाई अंहकार है और एक लाडली बहन भी है जिसका नाम जिद है। उसकी पत्नी का नाम हिंसा है, उसकी बेटियाँ निन्दा और चुगली हैं। वैर उसका बेटा है, ईर्ष्या इस खानदान की नकचड़ी बहू है और इसकी पोती घृणा है इस खानदान से हमेशा दूर रहें और हमेशा खुश रहें।
क्रोध के इस पूरे खानदान के विषय में पढ़कर चिन्तन करना आवश्यक हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि क्रोध के साथ-साथ भय, उपेक्षा, द्वेष, अहंकार, जिद, हिंसा, निन्दा, चुगली, वैर, ईर्ष्या, घृणा आदि दुर्गुण भी मनुष्य के मन में घर कर जाते हैं। उसे सदा अशान्त बनाए रखते हैं। इनसे मुक्त होने के लिए वह सदा छटपटाता रहता है परन्तु ये अवगुण हैं कि उसका पिण्ड ही नहीं छोड़ते।
जो क्रोधी होता है उसे सदा यही डर सताता रहता है कि कहीं लोग उसका तिरस्कार न कर दें। कहीं वह अकेला न रह जाए। उससे क्रोधवश ऐसा कोई कार्य न हो जाए कि सारी आयु उसे पछताना पड़े। वह लोगों की उपेक्षा का पात्र तो बन ही जाता है। अपने क्रोध के कारण वह स्वयं भी दूसरों की उपेक्षा करने लगता है। इस तरह धीरे-धीरे वह नकचढ़ा बन जाता है। अपने अहंकार के कारण हर किसी से द्वेष करने की उसकी प्रवृत्ति बन जाती है।
जो भी उसके बराबर खड़ा होता है या उससे आगे निकलने लगता है, उनसे वह ईर्ष्या और घृणा करने लगता है। चाहे अपने उद्देश्य में सफल हो पाए अथवा नहीं अपने उन लोगो को नीचे गिराने के लिए पीठ पीछे उनकी निन्दा और चुगली करता है। जिसका परिणाम कभी सुखदायी नहीं हो सकता।
इस प्रकार करके वह अपने लिए खुद ही गड्डा खोदता है। हर किसी से दुश्मनी मोल ले लेना भी तो समझदारी का लक्षण नहीं है। यह जिद ठान लेना कि कोई भी अन्य व्यक्ति योग्यता आदि में उसकी बराबरी नहीं कर सकता, बहुत ही अनुचित होता है। उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि दुनिया में योग्य लोगों की कोई कमी नहीं है। उससे भी अधिक योग्य इस धरा पर विद्यमान हैं। वृथा अहं का शिकार नहीं बनना चाहिए।
मनुष्य क्रोध में हिंसक बन जाता है। अतिक्रोध के आवेश में आकर वह किसी की हत्या करने तक का अपराध कर बैठता है। जिसके कारण वह समाज व न्याय का शत्रु बनकर सारा जीवन करावास में बिताने के लिए विवश हो जाता है। ऐसा करके अपनों के लिए सन्ताप और शर्मिन्दगी का कारण बन जाता है।
क्रोधी व्यक्ति किसी का भी प्रिय नहीं बन पाता। सामने वाला यही सोचता है कि पता नहीं किस बात पर उसे गुस्सा आ जाए और वह खड़े-खड़े अपमानित कर दे। इसलिए वह अपने प्रियजनों से दूर होकर अकेला हो जाता है। एक समय ऐसा आता है जब उसे इस दुर्गुण के कारण ग्लानि होती है। फिर वह पश्चाताप करता है पर तब तक सब हाथ से निकल चुका होता है यानी बहुत देर हो चुकी होती है।
क्रोध रूपी इस शत्रु को जीतना बहुत ही आवश्यक है। हालाँकि चुनौतीपूर्ण यह एक कठिन कार्य है पर असम्भव नहीं है। जिसने इस शत्रु को अपने वश में कर लिया वह दुनिया में सबका प्रिय बनकर महान हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद